सरकार का स्वास्थ्य और देश की बीमारी

२८ फरवरी २०११

विपक्षी दलों की प्रतिक्रिया को ही अगर देश की सोच भी मान ली जाए तो प्रणब मुखर्जी द्वारा पेश किए गए बजट को उम्मीदों के विपरीत तथा एक शानदार अवसर को जान-बूझकर हाथ से गंवा देने का उपक्रम करार देते हुए खारिज किया जा सकता है। पर यह पूर्ण सत्य नहीं है। आधा सच यह है कि जिस तरह की परिस्थितियों में देश की अर्थव्यवस्था आज है और सरकार को जिन चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है, उसमें मुखर्जी कोई वाह-वाही लूटने वाला ‘पापुलिस्ट’ बजट पेश करने की स्थिति में नहीं थे। और शेष सच्चाई यह है कि अगर सरकार इच्छाशक्ति दिखाती तो कुछेक क्षेत्रों में जोखिम उठाकर भी अपने पूर्व घोषित संकल्पों की पुष्टि में प्रमाण प्रस्तुत कर सकती थी। आम आदमी राजनेताओं की तरह दूरदृष्टि नहीं रखता। अत: वह न तो विकास की दर के आंकड़ों के चमत्कार से प्रभावित हो पाता है और न ही वित्तीय घाटे की भाषा ही समझता है। इसलिए ‘आर्थिक’ मोर्चों पर सरकार की उपलब्धियां उस आम आदमी को प्रभावित करने से चूक जाती हैं जिसे लेकर ‘राजनीतिक’ संघर्ष हमेशा जारी रहता है। वित्तमंत्री भी शायद मानते हैं कि वे और भी बेहतर करके दिखा सकते थे। आयकर में छूट की सीमा को बढ़ाना या वरिष्ठ नागरिक माने जाने की आयु को 65 से कम कर ६० कर देने के फैसले अपनी जगह ठीक हैं और नौकरीपेशा वर्ग या 120 करोड़ की आबादी वाले देश के केवल तीन करोड़ करदाताओं को खुश करने के लिए पर्याप्त भी माने जा सकते हैं। पर असली सवाल तो उन मुद्दों पर चुनौतियां स्वीकार करने का है जो समूचे देश को आंदोलित किए हुए हैं। मसलन महंगाई को काबू करने की दिशा में समाज के सबसे ज्यादा प्रभावित तबकों को विश्वास में लेने का आश्वासन श्री मुखर्जी के बजट भाषण में इससे ज्यादा दूरी तक सफर नहीं करता कि खाद्य पदार्थों को लेकर महंगाई की दर पहले के मुकाबले आधी से कम रह गई है। भ्रष्टाचार और काला धन इस समय आक्रोश के बड़े मुद्दे बने हुए हैं। पर भ्रष्टाचार के सवाल को वित्त मंत्री ने इतना भर कहकर समेट दिया कि मंत्रियों का समूह उस पर विचार कर रहा है। काले धन के सवाल पर पांच-सूत्रीय रणनीति का जिक्र भर उन्होंने किया। विभिन्न क्षेत्रों द्वारा इस संबंध में बजट-पूर्व व्यक्त किए गए सारे अनुमान धरे के धरे रह गए। समाज के सबसे कमजोर तबके तक मिट्टी के तेल, खाना पकाने की गैस और उर्वरकों पर नकद सब्सिडी पहुंचाने का प्रयोग अगले साल मार्च तक के लिए टाल दिया गया। वित्त मंत्री साथ ही यह भी स्वीकार कर लेते हैं कि नकद सब्सिडी की पात्रता रखने वाले सभी लोगों तक उसका लाभ पहुंच सकना शायद तब भी संभव न हो। खाद्य सुरक्षा विधेयक इसी साल संसद में पेश किया जाना है। खाद्य सुरक्षा का प्रभावक्षेत्र बढऩे के कारण जितनी मात्रा में अतिरिक्त खाद्यान्न की जरूरत देश को पडऩे वाली है उस अनुपात में कृषि उत्पादन बढ़ाने की मद में जितनी कम राशि का प्रावधान किया गया है, उसे देखकर तो यही लगता है कि सरकार ने एक बड़ी चुनौती को अधूरे मन से ही स्वीकार किया है। पर अपनी तमाम कमजोरियों के बावजूद अगर बजट प्रस्तावों में विकास की कुछ संभावनाएं नजर आती हैं तो केवल इस सच्चाई के कारण कि सरकार आर्थिक मोर्चों पर स्थिरता कायम करने के लिए अब विपक्षी दलों के ज्ञान का भी लाभ लेने का इरादा रखती है और राज्य सरकारों को अपनी कोशिशों में साझीदार भी बनाना चाहती है। इस दृष्टि से समीक्षा की जाए तो श्री मुखर्जी के कथन पर भरोसा किया जा सकता है कि उनके बजट प्रस्ताव एक पारदर्शी और परिणाममूलक अर्थव्यवस्था की ओर आगे बढऩे के प्रयास हैं।

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