[dc]रि[/dc]टेल में एफडीआई के मुद्दे पर सरकार ने आखिरकार हारकर भी अपनी जीत दर्ज करा ही दी। मतदान में यही सिद्ध हुआ कि डॉ. मनमोहन सिंह के नेतृत्व में एक अल्पमत की सरकार देश पर काबिज है और यही स्थिति चुनावों तक रहने भी वाली है। एफडीआई पर लोकसभा में हुई धुआंधार बहस और वोटिंग के बाद यूपीए के मंत्रियों और कांग्रेस के प्रवक्ताओं के चेहरों पर नजर आती ओढ़ी हुई बहादुरी इस बात का प्रमाण थी कि मतों के जरिए मिली जीत के बावजूद सरकार में कोई उत्साह नहीं बचा है। सरकार काफी थक चुकी है और आने वाले दिन उसके लिए मुश्किल ही साबित होने वाले हैं। पिछला अनुभव अगर कोई संकेत है तो राज्यसभा में शुक्रवार को निकलने वाले परिणामों की प्रतीक्षा करना आवश्यक नहीं है। सरकार जीतने का फैसला कर चुकी है। सुषमा स्वराज ने मंगलवार को लोकसभा में बहस के दौरान पेशकश की थी कि विपक्ष सरकार को “हराना” नहीं “मनाना” चाहता है। बुधवार को सरकार ने जवाब दे दिया कि विपक्षी पार्टियों की मदद से ही वह हारकर भी जीत सकती है और “मानने” का तो कोई सवाल ही पैदा नहीं होता। एफडीआई के मुद्दे पर चले समूचे घटनाक्रम ने अंततः यही साबित किया कि सरकार तो अल्पमत में है ही पर उसके साथ विपक्ष भी अल्पमत में है। किसानों, गरीबों, छोटे दुकानदारों के हितों को लेकर संसद में बड़ी-बड़ी बातें करने वाली समाजवादी पार्टी और बसपा ने जिस तरह से समूचे विपक्ष को पीठ दिखाई उससे यही संदेश गया है कि वर्ष २०१४ में होने वाले लोकसभा चुनावों के सिलसिले में बनने वाले समीकरण और सीटों के बंटवारे की सौदेबाजी “राजनीति में नैतिकता” के सूचकांक को उसके न्यूनतम स्तर पर पहुंचाकर ही दम लेने वाला है। रिटेल में एफडीआई पर उनके वैचारिक विरोध के आधार पर माया और मुलायम के ४३ वोट अगर विपक्ष को प्राप्त हो जाते तो सुषमा स्वराज के प्रस्ताव के पक्ष में २६१ वोट पड़ते जो कि सरकार को मिले २५३ वोटों से आठ ज्यादा होते। तब सारी बाजी पलट जाती। पर ऐसा होना संभव नहीं था। भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई और रिटेल में एफडीआई का स्वागत दोनों साथ-साथ नहीं चल सकते थे। राजनीति में कथनी और करनी को अलग-अलग रखना ही पड़ता है। रिटेल में एफडीआई के मुद्दे पर सरकार का एक महत्वपूर्ण तर्क यह रहा है कि जो भी राज्य सरकारें उसे अपने यहां लागू नहीं करना चाहें वे ऐसा करने के लिए स्वतंत्र हैं। यानी कि समाजवादी पार्टी वोटिंग के समय सदन से बहिर्गमन कर सरकार को ताकत देने का काम करेगी और उत्तरप्रदेश में उसे लागू न करके उसे कमजोर करने की जिम्मेदारी निबाहेगी। देश में जब आपातकाल लगाया गया तब संघीय ढांचे का सम्मान करते हुए राज्यों को यह आप्शन नहीं दिया गया कि जो राज्य उसे अपने यहां लागू नहीं करना चाहते हैं वे उसके लिए स्वतंत्र हैं। मुद्दा निश्चित ही यह नहीं है कि रिटेल में एफडीआई देश हित में है या नहीं। बहुत मुमकिन है कि उसके परिणाम वैसे ही प्राप्त हों जैसा कि दावा सरकार ने किया है। बहस का मुद्दा यह जरूर है कि सरकार पर यकीन किया जाए या नहीं। सरकार जब यह वादा करती है कि वह रिटेल में एफडीआई के सवाल पर विपक्ष से चर्चा करके सहमति बनाने के बाद ही आगे बढ़ेगी और फिर अपने वादे से पलट जाती है तो उस स्थिति से कैसे निपटना चाहिए? लोकसभा में सरकार की ओर से इस आरोप पर कोई सफाई भी नहीं दी गई। सरकार ने जिस एक सच्चाई को परोक्ष रूप से स्वीकार किया वह यह है कि एफडीआई लाने का उद्देश्य देश के तीस-पैंतीस करोड़ की आबादी वाले मध्यम वर्ग का बाजार अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कंपनियों को उपलब्ध कराना है। और यह भी कि उसके इस कदम से देश की उस बाकी अस्सी करोड़ जनता की जिंदगियों पर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है जिसके कि वोट उसे सत्ता में फिर से आने के लिए चाहिए।