श्रद्धांजलि: साहस की राजनीति के शेर का अवसान

[dc]बा[/dc]ल ठाकरे अपनी अनुपस्थिति से पैदा होने वाली रिक्तता और उसके प्रभाव के प्रति पूरी तरह से वाकिफ थे। शायद इसी कारण उन्होंने ‘मातोश्री”, अपने लाखों शिव सैनिकों, मुंबई और महाराष्ट्र की जनता और उद्धव- राज ठाकरे सहित शिवसेना के उत्तराधिकारियों को इस कठिन क्षण का सामना करने के लिए तैयार होने का पर्याप्त समय भी प्रदान किया। बाला साहेब एक योद्धा थे। एक ऐसे योद्धा जिनकी चार-पांच दशकों की भारतीय राजनीति में कोई मिसाल नहीं है। बाला साहेब विधि द्वारा निर्वाचित शासन के समानांतर चलने वाली ऐसी ‘सरकार” थे, जिसके फैसले केवल महाराष्ट्र ही नहीं बल्कि समूचे देश की राजनीति को प्रभावित करते थे। मुंबई और महाराष्ट्र के सिनेमाघरों में कौन सी फिल्म चलने दी जाएगी, पाकिस्तानी कलाकारों को मुंबई में कार्यक्रम पेश करने की इजाजत दी जाएगी या नहीं, पाकिस्तान के साथ क्रिकेट मैच होगा या नहीं से लगाकर प्रधानमंत्री पद के लिए श्रेष्ठ उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी होंगे या कि सुषमा स्वराज- सारे फैसले ‘मातोश्री” से बाला साहेब की मुहर से जारी होते थे। बाला साहेब का हिन्दू राष्ट्रवाद शिवाजी के संघर्ष की गाथाओं से प्रेरित था और उसे लेकर उन्होंने किसी भी तरह का समझौता नहीं किया। बाला साहेब के बाद मुंबई का स्वरूप कैसा रहेगा आज कुछ कहा नहीं जा सकता। जो निश्चित है वह यह कि कुछ बदलेगा जरूर और उसे लेकर केवल आशंकाएं और संभावनाएं ही व्यक्त की जा सकती हैं। बाला साहेब की अस्वस्थता के चलते और अब उनके जाने के बाद ‘मातोश्री” के आसपास जमा हजारों की भीड़, कतार लगाकर हाजिरी देने वाले देश के अति-अति विशिष्ट व्यक्तियों का जमावड़ा और मुंबई शहर की तेज- धीमी होती धड़कन, अगर कोई संकेत हैं तो प्रतीक्षा ही की जा सकती है कि मायानगरी मुंबई में वे किस तरह की रिक्तता छोड़कर गए हैं।
[dc]बा[/dc]ला साहेब भारतीय राजनीति में जिस कटाक्ष का प्रतिनिधित्व करते थे वह उनके वर्षों के संघर्षों से पैदा हुआ था। अपने आरंभिक दिनों में वे कार्टूनिस्ट थे और अपनी रचनाओं के सृजन में वास्तविक जीवन की जिन सच्चाइयों का सामना उन्हें करना पड़ा वह बाद में कहीं उनके व्यक्तित्व का अभिन्ना अंग बन गई। शिवसेना के मुखपत्र ‘सामना” में लिखे जाने वाले सम्पादकीय बाला साहेब की विचारधारा के ऐसे दस्तावेज हैं, जिनके प्रति असहमति व्यक्त करने का साहस उनके घोर से घोर विरोधी भी नहीं कर पाते थे। बाला साहेब ‘मातोश्री” से बाहर नहीं निकलते थे, पर इसकी जरूरत न तो स्वयं उन्होंने कभी महसूस की और न ही उनके समर्थकों ने ऐसी अपेक्षा ही की। वे ‘मातोश्री” में बैठकर ही मंत्रालय पर भी राज करते थे और मुंबई भी उनका हुकुम बजाती थी। अब बाला साहेब के बाद चीजें किस तरह की शक्ल अख्तियार करेंगी, बहुत कुछ इस बात पर भी निर्भर करेगा कि उनकी वैचारिक विरासत और राजनीतिक उत्तराधिकार का उद्धव और राज ठाकरे के बीच बंटवारा किस तरह से होता है। बाला साहेब ने शिवसेना को मुंबई और महाराष्ट्र के जीवन की धड़कन बना दिया है। शिवसेना का भविष्य का स्वरूप और उसका नेतृत्व ही यह तय करने वाला है कि बाला साहेब का निधन किस तरह की कमी महाराष्ट्र में छोड़ गया है। और यह भी कि अगले दो वर्षों में देश की राजनीति में होने वाले परिवर्तनों और विपक्षी गठबंधनों पर बाला साहेब की अनुपस्थिति का क्या असर पड़ने वाला है।

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