[dc]भा[/dc]रतीय राजनीति के पिछले डेढ़ दशक का लेखा-जोखा अगर खंगालें तो अरुण जेटली ने अटलजी की सरकार के मंत्री के रूप में वर्ष 1999 से 2004 के बीच कई मंत्रालयों की जिम्मेदारी संभाली। इनमें सूचना एवं प्रसारण, विनिवेश, कानून, न्याय और कंपनी मामले, उद्योग एवं वाणिज्य, जहाजरानी आदि मंत्रालय शामिल हैं। पर वित्त से अरुण जेटली का संबंध इस तरह का ज्यादा रहा कि राज्यसभा में भाजपा के सदस्य-नेता के रूप में वे बहुत ही अधिकारपूर्ण तरीके से 2004 से 2014 के बीच यूपीए सरकार के बजटों की धज्जियां उड़ाते रहे। शायद इसीलिए एनडीए के ताकतवर वित्त मंत्री के रूप में जब अरुण जेटली गुरुवार को मोदी सरकार का पहला (अंतरिम) बजट पेश कर रहे थे, तब पूरी तरह से सहज नहीं नजर आ रहे थे। वे बजट भाषण ‘पढ़’ रहे थे। शब्द ‘स्लिप’ भी हो रहे थे। वाक्य टूट भी रहे थे। वे पानी भी पी रहे थे। और फिर (स्वास्थ्य संबंधी कारणों से) बीच में पांच मिनट का ब्रेक भी स्पीकर की अनुमति से लिया गया। बजट भाषण के बीच न तो कविताएं या शेर-ओ-शायरी हुई और न ही विपक्ष की ओर से भी वैसा कोई शोर-शराबा और हल्ला मचा, जैसा यूपीए के कार्यकाल में भाजपा और दूसरी विपक्षी पार्टियां करती थीं। इस बार वैसे भी कोई विपक्ष संसद में नहीं बचा है।
[dc]वि[/dc]त्त मंत्री के रूप में अरुण जेटली के समक्ष तीन बड़ी चुनौतियां थीं जिनके कि बीच उन्हें कोई दुर्घटना किए बिना अपना बजट भाषण पूरा करना था। पहली चुनौती तो यह थी कि यूपीए द्वारा विरासत में छोड़ी गई सरकार की दुर्बल माली हालत को देखते हुए जेटली राहतों के गुब्बारे हवा में उड़ाने की हालत में नहीं थे। दूसरी यह कि देश को ‘अच्छे दिन आएंगे’ की मीनार पर चढ़ा देने के बाद योजनाओं के लिए धन जुटाने के नाम पर जनता पर किसी तरह के कर वे नहीं लाद सकते थे। मनरेगा जैसी योजनाओं के कारण ”मजदूरों की कमी हो जाने या मजदूरी की दरें बढ़ जाने” के तर्कों के बावजूद योजना को संशोधनों के साथ बजट में जारी रखा गया है। सामाजिक क्षेत्र में आवंटन को कम करने या ‘युक्तिसंगत’ बनाने की जोखिम भी नहीं उठाई गई। तीसरी चुनौती जेटली के समक्ष इस तरह का कोई भी इंप्रेशन ‘नहीं’ छोड़ने की थी कि मोदी सरकार ने अपना बजट उद्योग जगत को समर्पित कर दिया। बजट के बाद शेयर बाजार का उतरा हुआ चेहरा इसका गवाह भी है। जेटली ने तीनों ही चुनौतियों को कुशलतापूर्वक निपटाने की कोशिश की। अत: बजट को पैंतालीस दिनों की सरकार की आने वाले महीनों और सालों में सकारात्मक नीयत की अभिव्यक्ति के तौर पर ही स्वीकार किया जाना चाहिए। उससे ज्यादा नहीं। आश्चर्य नहीं कि जेटली ने अपने किसी भी प्रस्ताव में रेल मंत्री सदानंद गौड़ा की तरह साठ हजार करोड़ की कोई बुलेट ट्रेन नहीं दौड़ाई। अरुण जेटली का बजट इन मायनों में ज्यादा यकीनी और जमीनी कहा जा सकता है कि इसमें अतिरंजना के बजाय अर्थव्यवस्था की हकीकतों पर ज्यादा भरोसा किया गया है। उन बिंदुओं को जोर देकर छुआ गया है, जिनके जरिए आम जनता को तंग किए बगैर देशी और विदेशी पूंजी निवेश की मदद से अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाया जा सकता है। राजकोषीय घाटे को सकल घरेलू उत्पाद के मुकाबले कम से कम किया जाकर सात प्रतिशत की विकास दर पर पहुंचने का सपना देखा जा सकता है। बहुत मुमकिन है कि अगले साल फरवरी के अंत में जब अरुण जेटली अपना पूरा बजट पेश करें, तब तक मोदी सरकार के नेतृत्व में भारतीय अर्थव्यवस्था का पूरा नक्शा भी साफ हो जाए और पिछले 10 वर्षों से विपक्ष की भूमिका निभा रही भाजपा भी पूरी तरह से अपने ‘सरकार स्वरूप’ को आत्मसात कर ले। तब तक हमें भी धैर्य के साथ प्रतीक्षा करना चाहिए।