१८ अगस्त २०११
तिहाड़ जेल से बाहर निकलने के बाद अन्ना हजारे रामलीला मैदान में उमडऩे वाले जन-सैलाब की आसमानी उम्मीदों को कैसे पूरी करने वाले हैं? देश की जनता को उसके समर्थन के लिए धन्यवाद देने के बाद क्या अन्ना यही सूचना देने वाले हैं कि जन लोकपाल की स्थापना को लेकर सरकार के साथ उनकी टीम का समझौता हो गया है? और कि उनके साथी जन लोकपाल के दायरे से प्रधानमंत्री और न्यायपालिका को बाहर रखने पर तैयार हो गए हैं? अगर यह सही है तो फिर रामलीला मैदान को आगे के आंदोलन के लिए तैयार करवाने की जरूरत नहीं बची थी। सरकार के साथ समझौते की बात अगर गलत है तो फिर न्यायमूर्ति संतोष हेगड़े के कथन से यही अर्थ निकालना पड़ेगा कि टीम अन्ना की सोच में दरारें पड़ गई हैं। अगर ऐसा नहीं है तो उस सरकार की समझ में पन्द्रह दिनों में क्या फर्क पड़ जाएगा जो अन्ना और उनकी टीम को ऊपर से नीचे तक भ्रष्टाचारी करार दे चुकी है? क्या गारंटी है कि अन्ना की लड़ाई उनके अनशन के पन्द्रह दिनों में सफल हो जाएगी और फिर देश से पैंसठ प्रतिशत भ्रष्टाचार के खत्म हो जाने का भरोसा मिल जाएगा। और अंत में यह कि पन्द्रह अगस्त की रात दिल्ली के कन्स्टीट्यूशन क्लब में देश के नाम अपने संदेश में अन्ना ने कहा था कि लड़ाई अब जनलोकपाल की स्थापना तक सीमित नहीं रही बल्कि लड़ाई देश में परिवर्तन की मांग को लेकर चलने वाली है- पिछले तीन दिनों से अपना खाना-पीना भूलकर जेल के दरवाजों पर पलक पावड़े बिछाए बैठे हुए हजारों समर्थकों को अन्ना अब देश में किस तरह के परिवर्तन का सपना बांटकर भाव-विभोर करने की तैयारी तिहाड़ में कर रहे हैं? देश अन्ना से जानना चाहेगा कि जिस परिवर्तन की बात उन्होंने की थी वह सत्ता के परिवर्तन की नहीं बल्कि व्यवस्था के परिवर्तन की थी। अन्ना की टीम से देश की जनता उसी व्यवस्था परिवर्तन के घोषणापत्र की मांग करने वाली है। वे लोग गलती कर रहे हैं जो ऐसा मानकर चल रहे हैं कि सरकार अन्ना के आगे झुक गई है। हकीकत यह है कि रस्सी केवल जली भर है। उसके सारे बल वैसे ही कायम हैं। केवल विशेषण बदले हैं, संबोधन के तेवर नहीं। सरकार को कहीं से उम्मीद नहीं थी कि अन्ना को समर्थन के बादल इस कदर फट पड़ेंगे कि जन सैलाब में उसका सारा अहंकार गले-गले तक डूब जाएगा और उसकी आवाज को ही बदल देगा। पर उम्मीद तो अन्ना को भी नहीं रही होगी कि इतिहास का ऐसा कोई क्षण उन्हें रालेगण सिद्धि जैसे छोटे से गांव से उठाकर देश की राजधानी की राजनीतिक छाती पर इस तरह से पोस्टर ब्वॉय के रूप में चस्पा कर देगा और जनता उनके चश्मे के भीतर गांधी और जयप्रकाश की आंखें तलाशने लगेगी। सरकार तो केवल अन्ना को तिहाड़ के दरवाजे के बाहर छोडक़र अपनी जिम्मेदारी और अपने अपराध से मुक्त होने की राह जोह रही है। जेल से बाहर आते ही समर्थकों की भीड़ और उसका उत्साह अन्ना की जिम्मेदारी बन जाएंगे। अन्ना का अब तक का आंदोलन तो फिल्म का प्रोमो भर था। ‘इंडिया अंगेस्ट करप्शन’ की बॉक्स ऑफिस पर सफलता और अन्ना के शब्दों में कहें तो देश में ‘लोकशाही’ का भविष्य तो अब रामलीला मैदान में वैसे ही तय होने वाला है जैसा कि 25 जून 1975 को जयप्रकाश नारायण की ऐतिहासिक सभा में हुआ था। इतिहास में सबकुछ दर्ज है कि उस सभा के बाद क्या हुआ था। अन्ना भी जानते होंगे कि सरकार इस समय केवल डरी हुई है, उनसे सहमत नहीं है। अन्ना के समक्ष चुनौती सरकार का डर नहीं बल्कि उसकी असहमति ही है।