[dc]को[/dc]ई चार हजार से अधिक विशिष्ट, अति-विशिष्ट और अति-अति-विशिष्ट आमंत्रितों की उपस्थिति में राष्ट्रपति भवन की सीढ़ियों और वहां स्थित ‘जयपुर स्तंभ’ के बीच में पसरे हुए खूबसूरत स्थान पर सोमवार शाम संपन्न् हुए बहुप्रतीक्षित समारोह की केवल दो खूबियां थीं। पहली तो थी: दक्षिण एशिया क्षेत्रीय सहयोग संगठन (सार्क) के ताकतवर राष्ट्र-प्रमुखों का दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में पैदा हुए एक ‘चाय वाले’ के शपथ-ग्रहण में उपस्थित होना। और दूसरी थी: उस ‘चाय वाले’ के मुंह से निकलने वाला वह वाक्य, जिसे कि सुनने के लिए भारत के करोड़ों लोगों के साथ-साथ दुनियाभर के भारतीय भी लालायित थे, “मैं नरेंद्र दामोदरदास मोदी संघ के प्रधानमंत्री के रूप में…”। यह उस क्षण का ‘क्लाइमेक्स’ था, जिसने 15 सितंबर 2013 को आकार लेकर अपनी ‘अश्वमेध’ यात्रा शुरू की थी। यह भारत की आत्मा ग्रहण कर उस स्वप्न का कोई डेढ़ सौ से अधिक वर्षों के बाद पुनर्जन्म था, जो अत्यंत संपन्न् अमेरिकी समाज में भी दिल दहला देने वाली गरीबी में पैदा होकर अब्राहम लिंकन के रूप में वॉशिंगटन स्थित राष्ट्रपति निवास में पहुंचा था और जिसने विपन्न्ता की समूची परिभाषा को ही बदल दिया था। शपथ लेने के बाद आश्चर्यजनक रूप से नरेंद्र दामोदरदास मोदी के चेहरे पर किसी विजेता की मुस्कान नहीं थी। उन्होंने पूरे समारोह के दौरान एक बार भी अपना सिर ऊंचा करके ‘सिकंदर’ के भाव से उस समूह में बैठे चेहरों को पढ़ने की कोशिश नहीं की, जिन्हें कि पराजित करके वे राष्ट्रपति भवन के विशाल प्रांगण में पहुंचे थे। नरेंद्र मोदी ने अपने विरोधियों को हराने का साहस तो आसानी से जुटा लिया था, पर शपथ-ग्रहण के भव्य आयोजन की इस वास्तविकता के साथ तालमेल करना अभी शेष था कि उत्तरी गुजरात के मेहसाणा जिले के एक छोटे-से शहर वडनगर का गुजराती अब सवा सौ करोड़ की आबादी वाले लोकतंत्र का पंद्रहवां प्रधानमंत्री है। और कि अब उसे गुजरात भवन छोड़कर 7 रेसकोर्स रोड पर जाना पड़ेगा तथा अपनी रातें गांधीनगर में नहीं, बल्कि नई दिल्ली में गुजारनी पड़ेंगी। लंदन से प्रकाशित होने वाले प्रसिद्ध अंग्रेजी अखबार ‘द गार्जियन’ ने चुनाव परिणामों के दो दिन बाद लिखा था कि “सोलह मई का दिन भारत के इतिहास में एक ऐसे दिन की तरह याद रखा जाएगा, जब आखिरकार इस देश से अंग्रेजों की विदाई हुई।” 26 मई की शाम को वह काम पूरा भी हो गया।
[dc]दु[/dc]नियाभर में कहा और लिखा जा रहा है कि ‘सोलहवीं लोकसभा’ के लिए चुनावों में जीत ‘पंद्रहवें प्रधानमंत्री’ के व्यक्तिगत खाते में दर्ज की गई है। मंत्रिमंडल के गठन के बाद सरकार का जो चेहरा व्यक्त हो रहा है, उसमें भी केवल मोदी ही दिखाई दे रहे हैं। अटलजी के मंत्रिमंडल में दूसरे क्रम पर आडवाणी थे। उसमें आगे के क्रमों पर भी कुछ चेहरे थे। पर सोमवार को जिस मंत्रिमंडल ने नई दिल्ली में शपथ ली है, उसमें ‘एक से पैंतालीस’ तक नरेंद्र मोदी ही हैं। किसी लोकतांत्रिक व्यवस्था में एक व्यक्ति के प्रभाव और जनता की उसी से सारी उम्मीदों का यह पहला प्रयोग है। अब इस प्रयोग का सफल होना इसलिए जरूरी है कि अगर ऐसा हो गया तो यह समूचे दक्षिण एशिया की शक्ल बदल देगा। पड़ोसी राष्ट्र-प्रमुखों की उपस्थिति में मोदी का शपथ-ग्रहण समूचे दक्षिण एशिया के नागरिकों के विश्वास को भी मजबूत करेगा कि भारत के साथ-साथ अब उनके भी अच्छे दिन आने वाले हैं। अत: नरेंद्र दामोदरदास मोदी की भारत के पंद्रहवें प्रधानमंत्री के रूप में सफलता की कामना की जानी चाहिए।