[dc]गो[/dc]वा में राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक खत्म होने की अगली सुबह ही भारतीय जनता पार्टी के ‘पितृ पुरुष’ पूरी तरह से स्वस्थ हो गए और समूची पार्टी एक लंबे समय के लिए बीमार पड़ गई। आडवाणी की सेहत खराबी एक ‘बहाना’ था। भाजपा की सेहत का खराब होना एक हकीकत है। आडवाणी अगर ‘कू्ररता’ पर ही उतर आते तो तेज रफ्तार से चलती गोवा बैठक को ठीक उस समय अपने इस्तीफे से भंड कर सकते थे जब राजनाथ सिंह आंखें झपकते हुए घोषणा कर रहे थे कि मोदी के नाम पर फैसला करते हुए उन्हें क्षणमात्र भी नहीं लगा। निश्चित ही अब उन्हें आडवाणी को मनाने में कई दिन और सप्ताह लग सकते हैं।
[dc]ना[/dc]टकों और फिल्मों के शौकीन आडवाणी ने जिस नाटकीय अंदाज में संसदीय बोर्ड, चुनाव समिति और राष्ट्रीय कार्यकारिणी से इस्तीफा दिया वह समझने लायक है। पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी और संसदीय बोर्ड के सदस्यों ने ही गोवा में मोदी के नाम पर मुहर लगाई थी और गुजरात के मुख्यमंत्री को चुनाव अभियान समिति का अध्यक्ष बनाया गया है। आडवाणी अभी पार्टी के सदस्य, लोकसभा सांसद और एनडीए के कार्यकारी अध्यक्ष बने हुए हैं। पार्टी के उन सभी दिग्गजों की दिल्ली में सांसें फूली हुई हैं जो गोवा में पटाखों के धुंए में भी खिलते हुए कमल की खुशबू खंगाल रहे थे। वे तमाम लोग जो तीन दिन पहले आडवाणी के घर के सामने विरोध-प्रदर्शन कर रहे थे, उन्हें अब ‘पितृ पुरुष पर इस्तीफा वापस लेने का दवाब डालने के लिए फिर से जमा किया जाना चाहिए।
[dc]गो[/dc]वा में जिस तरह से राजनाथ सिंह ने मोदी का मस्तकाभिषेक किया उससे दिल्ली के पृथ्वीराज रोड तक यह संदेश पहुंचने में देरी नहीं लगनी चाहिए थी कि भारतीय जनता पार्टी का नया नेतृत्व अब केवल आडवाणी की छवि का उपयोग करने की नीयत रखता है, साक्षात आडवाणी का नहीं। पोस्टरों में अटलजी के फोटो के साथमतदाताओं को प्रभावित करने के लिए आडवाणी की जरूरत हाल-फिलहाल बनी हुई है। एनडीए को कम से कम चुनावों तक जीवित रखने के लिए भी पार्टी को आडवाणी की जरूरत है। मतलब यह कि भाजपा की नई लीडरशिप आडवाणी को पास रहते हुए भी दूर रखना चाहती है। आडवाणी इस सांप-सीढ़ी के खेल को पचा नहीं पा रहे थे। इसे एक सोची-समझी रणनीति का हिस्सा भी माना जा सकता है कि भाजपा के कट्टर मोदी समर्थक समूह के एजेंडे में था ही नहीं कि आडवाणी पार्टी की महत्वपूर्ण बैठक में भाग लें।
[dc]अ[/dc]गर ऐसा नहीं था तो पूछा जा सकता है कि बैठक के लिए गोवा को ही क्यों चुना गया, किसी और राज्य को क्यों नहीं? वर्ष 2009 में मनोहर पार्रिकर ने आडवाणी के प्रति परोक्ष रूप से टिप्पणी की थी कि घर में अचार को एक साल से ज्यादा नहीं रखा जाता। अचार अगर सड़ जाए तो उसे फेंक दिया जाना चाहिए। इस पर तब काफी बवाल मचा था। उन्हीं कट्टर मोदी समर्थक गोवा के मुख्यमंत्री पार्रिकर को बैठक का मेजबान बनाया गया। आडवाणी गोवा जा ही नहीं सकते थे। जो कुछ नजर आ रहा है उसके मुताबिक आडवाणी अपना इस्तीफा वापस भी नहीं लेंगे और राजनाथ उसे मंजूर भी नहीं करेंगे। मोदी विरोधी समूह की ओर से टीम राजनाथ को चुनौती दी जाएगी कि वे अब नरेंद्र मोदी के करिश्मे के दम पर ही लोकसभा चुनावों में चमत्कार करके दिखाएं। बहुत मुमकिन है आडवाणी की प्रतिभा के अहंकार से आहत मोदी ऐसा करके दिखाने को अंतत: ठान भी लें। मोदी की गिनती न तो पीछे हटने वाले नेताओं में होती है और न ही हार मानने वालों में। वे अब तक अपने विरोधियों को सफलतापूर्वक रास्तों से हटाते ही रहे हैं। आडवाणी चुनावों से पहले भाजपा की जिम्मेदारियों से अपने आप को अपनी ही शर्तों पर रिहा करने का बहाना ढूंढ रहे थे और वह उन्हें मोदी ने प्रदान करा भी दिया। नरेंद्र मोदी का करिश्मा अगर चुनावों में चल जाता है तो फिर कहना ही क्या! नहीं चला तो ठीकरा फोड़ने के लिए आडवाणी का सिर अब उन्हें उपलब्ध रहेगा। नरेंद्र मोदी ने पणजी में यह कहा भी था कि गोवा उनके लिए हमेशा लकी रहा है।