[dc]कां[/dc]ग्रेस ने अगर अपने बड़बोले नेताओं के ‘जुबानी डायरिया’ का वक्त रहते डॉक्टरी इलाज नहीं किया तो चुनावों के बाद इस देशव्यापी पार्टी की एक बड़ी जमात को पांच सितारा आरामगाहों से बेदखल होकर पांच और बारह रुपए के भोजन के उन ठिकानों की तलाश करना पड़ेगी जिनके कि पतों को वे आज हवा में उछाल भी रहे हैं और ऊपर से मुंहजोरी भी कर रहे हैं। कांग्रेस आलाकमान की दिक्कतें केवल नरेन्द्र मोदी तक ही सीमित नहीं हैं। इस समय राजनीतिक ‘नागा नेताओं’ का एक ‘कुंभ’ मचा हुआ है जो गरीबी और गरीबों से लेकर हर उस शख्स और शख्सियत का मजाक उड़ाने पर आमादा है, जो फिर से सरकार बनाने के उनकी हसरतों का विरोध कर सकता है। मजा यह है कि पांच और बारह रुपए की बहस गरीबों को निवाला उपलब्ध कराने के हक में उसी सरकार के नुमाइंदे चला रहे हैं जो कि भ्रष्टाचार के आरोपों के गर्त में आकंठ डूबी है। प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह इसे भी गठबंधन की मजबूरी करार दे सकते हैं कि भ्रष्टाचार के आरोपों के चलते केवल सहयोगी दलों को ही या तो सरकार से बाहर निकलने के लिए बाध्य होना पड़ता है या उनके ही प्रतिनिधि मंत्रियों को ही जेलों की हवा खानी पड़ती है, कांग्रेस के रसूखदारों के पैरों तले का तो सूखा पत्ता भी आवाज नहीं कर पाता है।
[dc]ब[/dc]हस असल में पांच या बारह की नहीं है और न ही इस बात को लेकर है कि पेट कितने रुपए में भर सकता है। गरीब आदमी ने तो अब भूखे रहकर भी योगनिद्रा का अभ्यास साध लिया है। वास्तव में तो आम मतदाता की चिंता का विषय यह बनता जा है कि मुंह से बेलगाम ये तमाम विचारक मोदी की टक्कर में ज्यादा खतरनाक तरीके से राजनीतिक वातावरण का धु्रवीकरण कर रहे हैं और इसके कारण देश में कानून और व्यवस्था की समस्या खड़ी हो सकती है। सड़कों के गड्ढ़ों को खाइयों में बदला जा रहा है। इस तरह से पुलों और व्यवस्थाओं को ध्वस्त करने का काम तो केवल पराजय के भय से मैदान छोड़कर भागती हुई सेनाएं ही करती हैं।
[dc]मुं[/dc]बई के शेयर बाजार के ‘लो’ और ‘हाई’ के बारे में ही अभी तक चर्चाएं चलती रही हैं। हम इस समय राजनीति के ‘लो’ से मुखातिब हैं। कांग्रेस के ‘लो’ का मुकाबला विपक्षी दल भी उतनी ही मुस्तैदी से करने पर आमादा हैं। प्रख्यात अर्थशास्त्री और नोबल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन पर भाजपा के एक प्रवक्ता चंदन मित्रा द्वारा किया गया आक्रमण इसका एक नमूना है। हालांकि भाजपा ने चंदन मित्रा की टिप्पणी से अपने को अलग कर लिया है पर इससे देश के निर्दलीय नागरिक की यह चिंता कम नहीं होती कि जो राजनीतिक दल देश को कांग्रेस से मुक्त करना चाह रहे हैं उनके दिमागों में किस तरह की शरारतें आकार ले रही हैं। अत: केवल अनुमान ही लगाया जा सकता है कि आने वाले दिनों में दलीय राजनीति के इलाकों में किस तरह की वैचारिक हिंसा लोगों की जिंदगियों में अवैध अतिक्रमण करने वाली है। ज्यादा शर्म की बात तो यह है कि पांच और बारह रुपए में भोजन पर बयानबाजी करने वाली इन अनियंत्रित राजनीतिक आत्माओं को इस बात का कोई गम नहीं है कि सरकारों की ओर से मुफ्त बांटे जाने वाले ‘मिड-डे मील’ के जहरीले हो जाने के कारण चौबीस बच्चों की मौत हो गई।