२४ नवंबर २०१०
बिहार विधानसभा के चुनाव परिणाम इससे ज्यादा चमत्कारिक नहीं हो सकते थे। अगर होते तो पूरी तरह से अविश्वसनीय हो जाते। जिस तरह का अकल्पनीय बहुमत जद (यू)-भाजपा गठबंधन को वहां प्राप्त हुआ है वह यह बताने के लिए पर्याप्त है कि राजनीति के फैसले अब जनता के बीच से होने वाले हैं। बिहार ने राजनीति के विकेंद्रीकरण के लिए ऐसी भय और आतंकमुक्त जमीन तैयार कर दी है जो आने वाले वर्षों में अन्य राज्यों और नई दिल्ली में भी सत्ता के समीकरणों और स्थापित मान्यताओं को बदल कर रख देगी। वह इस मायने में कि सत्ता के सूत्रधार अब नई दिल्ली में तैयार होकर कठपुतलियों की तरह प्रदेशों की राजधानियों में नहीं लटकेंगे, बल्कि वे अपनी जमीन से ही उपजेंगे और नेतृत्व प्रदान करेंगे। नरेन्द्र मोदी और मायावती जैसे कद्दावर नेताओं ने केंद्र को चुनौती देने की जो शुरुआत की थी उसमें अब एक ऐसा प्रदेश जुड़ गया है जिसे अभी तक बीमार मानकर अस्पृश्यों की तरह व्यवहार किया जाता रहा है। बिहार के चुनाव परिणाम केवल सडक़ों, समाज कल्याण की सरकारी योजनाओं या ग्यारह प्रतिशत की विकास दर के नाम ही नहीं लिखे जा सकते। परिणामों का श्रेय तो वास्तव में जातिवाद के षड्यंत्र से प्रदेश को मुक्ति दिलाने की उस कोशिश को दिया जाना चाहिए जिसकी शुरुआत लोकनायक जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में नीतीश और सुशील मोदी ने वर्ष 1974 में कंधे से कंधा मिलाकर बिहार आंदोलन के जरिए की थी और जो पिछले पांच वर्षों से परवान चढ़ती रही है। विडम्बना केवल यही है कि लालू प्रसाद यादव और रामविलास पासवान भी राजनीति में भ्रष्टाचार के खिलाफ प्रारंभ हुए उसी जेपी आंदोलन के मुख्य पात्र थे। लालू यादव पंद्रह वर्षों तक बिहार में सत्ता के शीर्ष पर कायम रहे पर वे राष्ट्रीय जनता दल की राजनीति को स्वयं के परिवार से बाहर निकालकर जनता की धडक़नों में तब्दील नहीं कर पाए। नीतीश और सुशील मोदी राजनीति के ऐसे चेहरे बनकर उभरे हैं जिनकी राहुल गांधी अपनी स्वयं की पार्टी के लिए बिहार के चुनावों के दौरान तलाश ही करते रह गए। बिहार के नतीजे शायद इस मायने में थोड़े से निराशाजनक कहे जा सकते हैं कि गेहूं के साथ घुन की भी सफाई हो गई। लालू यादव से बुरी तरह नाराज मतदाताओं ने कांग्रेस को भी इस हद तक साफ कर दिया कि बिहार विधानसभा में विपक्ष जैसी कोई हकीकत ही नहीं बची। यह स्थिति इसलिए खौफ पैदा करने वाली है कि महत्वाकांक्षाओं के रथ पर सवार होने वाले किसी भी नीतीश कुमार को वह एक तानाशाह में बदल सकती है। चुनाव प्रचार के दौरान नीतीश कुमार ने ही राहुल गांधी को लेकर टिप्पणी की थी कि प्रधानमंत्री बनने से पहले उन्हें मुख्यमंत्री पद का अनुभव भी लेना चाहिए। नीतीश कुमार अपनी क्षमताओं को भी जानते हैं और राष्ट्रीय राजनीति की इन संभावनाओं को भी कि उनके जैसे व्यक्तित्व के समर्थन की यूपीए को भी आगे चलकर जरूरत पड़ सकती है। एनडीए में तो खैर उनकी हैसियत और भी ऊंची हो ही गई है। नीतीश कुमार ने शायद इसीलिए इतनी बड़ी विजय को भी अनपेक्षित विनम्रता के साथ ही स्वीकार किया है। गठबंधन की तीन-चौथाई विजय पर किसी तरह के उन्माद को हावी नहीं होने दिया। उम्मीद की जानी चाहिए कि बिहार के नतीजे कांग्रेस सहित सभी दलों के लिए दिशासूचक का काम करेंगे। स्पष्ट है कि नतीजों ने परिवारवाद को हर तरह से खारिज कर दिया है। साथ ही आम बिहारी को उसका वह गौरव व स्वाभिमान उपलब्ध कराया है जिसकी कि उसे तलाश व प्रतीक्षा थी। बिहार अब तो पूरी तरह से आजाद हो गया है।