दो तरह का देश, दो तरह की कांग्रेस?

३ नवंबर २०१०

कांग्रेस पार्टी, ऐसा लगता है, किसी भी तरह की जोखिम लेने के खतरे से अपने आपको सफलतापूर्वक बचा ले जाती है। पार्टी के प्रजातांत्रीकरण की दिशा में प्राप्त होने वाले हर अवसर को निर्भयतापूर्वक और निर्ममतापूर्वक टाल दिया जाता है। किसी भी तरह की आलोचनात्मक बहस या पोस्टमार्टम करने का तो सवाल ही नहीं उठता। एक ‘पंक्ति’ का प्रस्ताव पूरे एजेंडे की स्पेस खा जाता है और हजारों की संख्या में उपस्थित नेता और कार्यकर्ता ‘पंक्तिबद्ध’ होकर अपने-अपने स्थानों पर ‘जैसे थे’ की मुद्रा में ठहर जाते हैं। कुछ नया हो, या बदले, ऐसा कोई भी नेता चाहता है, इसमें शक होता है। बदलने की किसी भी कोशिश का मतलब यही लगाया जाता है कि पार्टी हित में पुरानी व्यवस्था को ही बनाए रखना जरूरी है। अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी ने मंगलवार को नई दिल्ली में संपन्न हुई अपनी एक या आधे दिन की बैठक में जो तय किया वह चौंकानेवाला है। इसलिए नहीं कि उसमें भ्रष्टाचार जैसे अहम मुद्दे पर कोई चर्चा नहीं हुई या कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को प्रमुखता के साथ निशाने पर लिया गया। बल्कि इसलिए कि बैठक में प्रकट हो सकने वाला कांग्रेस का एक आक्रामक चेहरा लोकसभा के लिए 2014 में होने वाले चुनावों तक पार्टी की गतिविधियों, उसके कार्यकर्ताओं और समूचे देश की राजनीति को प्रभावित करने वाला साबित हो सकता था, पर ऐसा नहीं होने दिया गया। या तो कांग्रेस की स्थापित कमजोरियों के चलते या फिर उन ‘निहित ताकतों’ के कारण जिन्हें किसी भी उजाले वाले परिवर्तन में स्वयं के राजनीतिक भविष्य के लिए अंधकार की आशंकाएं ही डराती रहती हैं। अपने आपको मैदानी धूप में खपाकर बड़ी जिम्मेदारियों के लिए तैयार करने वाले राहुल गांधी की तरफ देश के अन्य राजनीतिक दलों की नजरें लगी रही होंगी कि इस बार एआईसीसी में कमान उन्हीं के हाथों में दिखाई देगी, पर वैसा नहीं हुआ। तिरुपति और कोलकाता के अनुभवों के बाद से जिस तरह के नारों और जय-जयकारों ने कांग्रेस को जकड़ रखा है, उसमें किसी भी तरह की ढील नहीं पडऩे दी गई। राहुल गांधी, कार्यसमिति के सदस्यों के लिए चुनाव चाहते थे, पर सोनिया गांधी को ऐसा न होने देने की लिए मना लिया गया होगा। अगले तीन वर्षों यानी २०१४ तक के लिए पार्टी की नीति-निर्धारक इकाई के गठन का निर्णय कांग्रेस अध्यक्ष के हाथों में सौंप दिया गया। वे चाहेंगी तो निश्चित ही मनोनीत टीम को भी निर्वाचित टीम वाले चेहरों में बदल सकती हैं, अगर ऐसा संभव होने दिया गया तो! राहुल गांधी से कभी कोई कॉलेजी युवा या स्कूली बच्चा सवाल पूछने की हिम्मत जुटा सकता है कि बड़े-बड़े और बुजुर्ग राष्ट्रीय नेता जब सार्वजनिक रूप से उनकी तारीफ में कसीदे पढऩे की होड़ में लगे रहते हैं तब उन्हें अंदर से कैसा महसूस होता है? कांग्रेस के अंदरूनी चुनावों के जरिए देश की जनता की रुचि केवल इतना भर पता करने में हो सकती थी कि किस तरह के संगठनात्मक घोड़े पर सवार होकर राहुल गांधी देश पर अपना राज चलाना चाहते हैं? यानी उनकी खुद की पार्टी पर उनका कितना राज चलता है? सवा सौ साल की उम्र वाली पार्टी क्या इसी तरह आत्ममुग्ध बनी रहकर असली मुद्दों का सामना करने से बचती रहेगी? अगर युवा कांग्रेस और भारतीय राष्ट्रीय छात्र परिषद (एनएसयूआई) में संगठनात्मक चुनावों की प्रक्रिया को अंजाम दिया जा सकता है तो फिर कार्यसमिति के सदस्यों के चुनाव और प्रदेश अध्यक्षों के चयन को लेकर एक-एक पंक्तियों के प्रस्ताव किसलिए? ऐसा नहीं है कि भारतीय जनता पार्टी जैसे बड़े विपक्षी दल या अन्य राजनीतिक पार्टियों में प्रजातांत्रिक तरीकों से संगठनात्मक चुनावों की प्रक्रिया को अंजाम दिया जाता है और भाई-भतीजावाद अथवा खुशामदखोरों के लिए कोई जगह नहीं रहती। चुनावों का मतलब ही है कि नए चेहरों के लिए कुर्सियां खा
ली करना, ताजी हवा के थपेड़ों को बंद तंबुओं में घुसने देने के लिए रास्ते बनाना। खतरा वह नहीं है जिसका कि जिक्र ‘भारत’ और ‘इंडिया’ के बीच बढ़ती हुई दूरी की बात दोहराते हुए राहुल गांधी अकसर कहते रहते हैं और ऐसा उन्होंने एआईसीसी की बैठक में भी किया। राहुल गांधी के सामने शायद बड़ी चुनौती ‘दो तरह की कांग्रेस’ के बीच सोच में बढ़ती दूरियों को पाटने की भी है। एक तो कांग्रेस वह है जिसका कि वे नेतृत्व करना चाहते हैं और दूसरी वह जो वर्तमान में बनी हुई है। अत: अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की बैठक के परिणामों को अनपेक्षित होते हुए भी अनपेक्षित नहीं माना जाना चाहिए।

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