'दंभ' के दायरों से बाहर आए कांग्रेस

[dc]पुराने[/dc] जमाने की हिंदी फिल्मों की स्क्रिप्ट का यह एक अहम दृश्य होता था कि हीरो या हीरोइन की बूढ़ी मां को किसी ‘ट्रेजेडी’ के बाद इतना गहरा सदमा लगता है कि वह जड़ हो जाती है। उसका बोलना-चालना या खाना-पीना बंद हो जाता है। फिल्म की पटकथा में तब एक नकली किस्म का डॉक्टर प्रकट होता है। सफेद डॉक्टरी चोगा और गले में माला की तरह स्टेथेस्कोप लटकाए हुए यह डॉक्टर नजदीकी रिश्तेदारों को कमरे या वार्ड के बाहर सलाह देता नजर आता है कि मरीज को कोई गहरा सदमा लगा है, जो इनकी ऐसी हालत हो गई है। इन पर कोई भी दवा असर नहीं करेगी। इन्हें आप किसी भी तरह से रुलाइए। इनका रोना बहुत जरूरी है। इनका रोना ही इनका इलाज है।
[dc]अट्ठाइस[/dc] दिसंबर 1885 को स्थापित हुई एक सौ अट्ठाइस साल बूढ़ी और पूर्व से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण तक देश भर में फैले हुए लाखों कार्यकर्ताओं (और नेताओं) की IमांO कांग्रेस को भी चुनावी मैदान में मिल रही पराजयों से इतना गहरा सदमा लगा है (और जारी है) कि पार्टी पूरी तरह से किंकर्तव्यविमूढ़ हो गई है। सन्निपात की स्थिति में जैसे मरीज कुछ भी बड़बड़ाने लगता है, वैसा ही हाल पार्टी के जिम्मेदार नेताओं का हो गया है। कांग्रेस पार्टी भी एक पुरानी फिल्म की तरह ही पेश आ रही है। डॉक्टरी सलाह के अनुसार उसकी आंखों से आंसुओं की धारा बहनी चाहिए पर वह पथरीली बनी हुई है।
[dc]देश[/dc] में एक मजबूत राष्ट्रीय विपक्ष की जरूरत की चिंता करें तो कांग्रेस को उसके वर्तमान सदमे से बाहर निकालकर उसे हकीकत में भी रुलाने की जरूरत आन पड़ी है, पर पार्टी अपने आपको सामान्य करने के लिए तैयार नहीं दिखाई पड़ती। ऐसा लगता है जैसे पूरी तरह से मैदान से बाहर होने से पहले वह संगठन के जनता से संवाद के सारे माध्यमों को अपने अहंकारी बारूद से नेस्तनाबूद कर देना चाहती है। कांग्रेस पार्टी के बारे में किसी समय कहा जाता था कि उसके नेताओं और कार्यकर्ताओं में देशप्रेम और ईमानदारी कूट-कूटकर भरी है। आज पार्टी चाटुकारिता और भ्रष्टाचार के नशे की गिरफ्त में आ गई है और उससे मुक्त भी नहीं होना चाहती। डॉ. मनमोहन सिंह और पृथ्वीराज चव्हाण, दोनों की मजबूरियों के बीच जैसे कोई फर्क नहीं रह गया। डॉ. मनमोहन सिंह गठबंधन की मजबूरियों के चलते 2-जी और कोयला खदानों के आवंटन के मामलों में कोई कार्रवाई नहीं कर पाए और पृथ्वीराज आदर्श सोसायटी को लेकर। पृथ्वीराज ने जब मुंह खोला, तब तक बहुत देर हो चुकी थी।
[dc]महाराष्ट्र[/dc] के चुनाव परिणाम इस मायने में संकेत हैं कि कांग्रेस पार्टी की नीयत में अगर ईमानदारी हो तो घर की सफाई दीपावली के बाद भी की जा सकती है या ठेके पर देकर भी करवाई जा सकती है। पार्टी का अभी सबकुछ बर्बाद नहीं हुआ है। शिवसेना के भाजपा से अलग होकर अकेले दम पर चुनाव लड़ने की कहानी अलग है। पर शरद पवार और प्रफुल्ल पटेल की महत्वाकांक्षाएं Iपृथ्वीO के Iगुरुत्वाकर्षणO को छोड़ अगर ऊंची उड़ानें नहीं भरतीं और कांग्रेस-राकांपा का गठबंधन कायम रहता तो मुंबई के शेयर बाजार का नक्शा कुछ और होता। कहा जा सकता है कि कांग्रेस के साथ चुनावी समझौता तोड़ने के बावजूद शरद पवार के IकेलकुलेशंसO गलत पड़ गए। राकांपा को उम्मीद रही होगी कि कांग्रेस-राकांपा के मतों में बंटवारे के बाद भाजपा को पूर्ण बहुमत मिल जाएगा, पर वैसा नहीं हुआ। कांग्रेस फिर भी तीसरे नंबर पर आ गई। महाराष्ट्र पूरी तरह से Iकांग्रेसमुक्तO नहीं हो पाया। शरद पवार की पार्टी ने हड़बड़ी में भाजपा को सरकार बनाने में बाहर से समर्थन देने की भी घोषणा कर दी। महाराष्ट्र में सरकार निश्चित रूप से भाजपा की ही बनेगी, पर वह हरियाणा जैसी तो नहीं ही रहेगी। शिवसेना सरकार बनाने में भाजपा का दाहिना पैर बनना चाहती है, भाजपा के लिए बाएं हाथ की बैसाखी नहीं। भाजपा को ज्यादा तलाश बैसाखी की है और वह शरद पवार भी दे सकते हैं।
[dc]कांग्रेस[/dc] नेतृत्व के साथ नई दिक्कत यह है कि उसे अब भाजपा के द्वारा किए जाने वाले हमलों के कम और अपनी ही पार्टी के लोगों द्वारा किए जा रहे प्रहारों के ज्यादा जवाब देना हैं। कुमारी सैलजा द्वारा भूपिंदर सिंह हुड्डा के खिलाफ दिया गया बयान या कर्नाटक की कांग्रेस सरकार में मंत्री दिनेश गुंडूराव द्वारा Iदिल्ली के पार्टी नेतृत्वO के खिलाफ की गई सार्वजनिक टिप्पणी बताती है कि मवाद फूटकर बाहर तो आ रहा है, पर पार्टी नेतृत्व अभी भी आंसू बहाने या पोंछने को तैयार नहीं है।
[dc]गौर[/dc] करने की बात है कि भारतीय जनता पार्टी के प्रवक्ता अपनी भाषा, चेहरों और प्रस्तुतिकरण में लोकसभा चुनावों के पहले की आक्रामकता और तेवरों को विनम्रता में तब्दील करते हुए जनता के ज्यादा नजदीक होने की कोशिशों में हैं। वहीं दूसरी ओर आनंद शर्मा, अभिषेक मनु सिंघवी और मनीष तिवारी के तेवर और अंदाज यही बताने की कोशिशों में लगे रहते हैं कि कांग्रेस अभी भी सत्ता में बनी हुई है या फिर जल्द ही फिर से वापसी करने वाली है। हकीकत में कांग्रेस का IरिवायवलO पार्टी का अपने अतीत से मुक्त होने में छुपा है। कांग्रेस ने राजाओं के प्रिवीपर्स तो बंद कर दिए, पर अपने आपको सामंती अतीत से मुक्त नहीं कर पाई। उसके संग्रहालयों में अभी भी शिकार किए गए शेरों की खालें, बारहसिंघों के सिर और म्यानों में कैद जंग खा चुकी तलवारें प्लास्टर छोड़ती दीवारों से चिपकी हुई नजर आ जाएंगी।
[dc]कांग्रेस[/dc] की आंखों में आंसू पैदा करने के लिए किसी फिल्मी किस्म के नकली डॉक्टर की नहीं, बल्कि एक असली चाय बेचने वाले की जरूरत है। सवाल यह है कि जो पार्टी 128 वर्षों में भी उसे नहीं तलाश पाई तो अब कैसे कर पाएगी! अगर कांग्रेस को अपने से भारत को मुक्त नहीं होने देना है तो यह चमत्कार भी करके दिखाना पड़ेगा। वैसे लोकसभा चुनाव के मुकाबले महाराष्ट्र के परिणामों का विश्लेषण किया जाए तो कांग्रेस के लिए सदमा उतना गहरा भी नहीं है, जितना कि उसे बनाया और बताया जा रहा है।

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