जब तक है जान इस ट्रायल में

[dc]भा[/dc]रतीय जनता पार्टी ने अपने विवादास्पद अध्यक्ष नितिन गडकरी को एक राष्ट्रीय मुद्दे में बदलकर रख दिया है। इसके लिए न तो भाजपा और न ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने देश के नागरिकों से कभी कोई राय ली। संघ और भाजपा के नेता गडकरी को फुटबॉल बनाकर “रखो-हटाओ” का खेल खेल रहे हैं और देश अपना वक्त बर्बाद होते हुए देख रहा है।गडकरी को बनाए रखा जाए या उनके स्थान पर किसी और की “पूर्ति” की जाए, इससे जनता का उतना ताल्लुक नहीं है, जितनी कि वह महंगाई और खाना पकाने की गैस के मुद्दे को लेकर त्रस्त है। पर इससे भाजपा की सेहत पर कोईफर्क नजर नहीं आता।
[dc]भा[/dc]जपा में इस समय जो कुछ भी चल रहा है, वह यही बताता है कि सबसे बड़ा विपक्षी दल किसी बड़ी और लाइलाज वैचारिक बीमारी से ग्रसित है।उसका संकट यह तय करना हो गया हैकि उच्च पदों पर तैनात व्यक्तियों के लिए नैतिक मानदंड क्या होने चाहिए? मसलन उन्हें व्यापार करने की छूट हो या नहीं?गडकरी मामले के निराकरण से ही जैसे भाजपा की भविष्य की “पथयात्रा” का नक्शा तय होने वाला हो। ऐसा इसलिए कि पार्टी पहली बार एक्सपोज हुईहै कि जब शीर्ष नेतृत्व के बीच सत्ता हस्तांतरण को लेकर टकराव बढ़ता है तो गंदे वस्त्रों को सार्वजनिक नलों के नीचे धोया जाना भी मजबूरी बन जाता है।
[dc]भा[/dc]जपा को लेकर प्राप्त हो रहा ज्ञान देश की जनता के लिए भी एक नया अनुभव है। कांग्रेस को लेकर इस तरह के सवाल कभी उठाए नहीं गए। कारण साफ भी हैं।एक तो यह कि कांग्रेस ने अपने साथ नैतिक मूल्यों की वकालत करने वाले संघ जैसे किसी बंधन को कभी जुड़ने ही नहीं दिया। दूसरे यह कि कभी पार्टीकिसी संकट में फंसी भी, तो भी या तो असहमत आवाजों को पटरी पर बैठा दिया गया या फिर संगठन को दो फाड़ भी हो जाने दिया गया।इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी के समक्ष जब सत्ता छोड़ने का नैतिक संकट खड़ा हो गया तो उन्होंने अपनी पार्टी के असंतुष्टों, विपक्षी दलों और समूचे मीडिया की मांग को कुचलते हुए क्या किया, वह इतिहास में दर्ज है। पर कांग्रेस इसके बाद भी सफलतापूर्वक बची रही।विपक्ष के योगदान के कारण।
[dc]ग[/dc]डकरी प्रकरण ने भाजपा के आंतरिक घमासान को तो उजागर किया ही है, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की अनुशासनात्मक छवि को भी तार-तार कर दिया है। गुजरात चुनावों की पूर्वसंध्या पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठ विचारक एमजी वैद्य द्वारा गडकरी के संदर्भ में नरेंद्र मोदी के खिलाफ की गई टिप्पणी के क्या मायने हो सकते हैं? केवल यही कि मोदी भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नहीं होंगे।और कि मोदी अगर चाहें तो पार्टी को गुजरात चुनावों में हरवा भी सकते हैं या येदियुरप्पा का रास्ता भी अपना सकते हैं।जो आरोप वैद्य ने गुजरात के मुख्यमंत्री के खिलाफ लगाया है, अगर वह कांग्रेस के प्रवक्ता लगा देते तो समूची भाजपा उनके पीछे पड़ जाती।
[dc]भा[/dc]जपा के प्रवक्ता इस बात का खुलासा क्यों नहीं करते कि गडकरी को क्लीन चिट देने और नहीं देने वाले चार्टर्ड अकाउंटेंट संघ विचारक एस गुरुमूर्ति की हैसियत को पार्टी में किस श्रेणी का सुरक्षा कवच प्राप्त है? आए दिन की बदलती “क्लीन चिटों” और परस्पर विरोधी बयानों के मार्फत भाजपा के बुद्धिवादियों की जमात देश की जनता को उल्लू साबित करते हुए सड़क से संसद तक भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई लड़ना चाहती है। इतना ही नहीं, यूपीए सरकार के विरुद्ध लड़े जाने वाले नकली युद्ध में उसे दूसरे दलों का समर्थन भी चाहिए। कांग्रेस को मायावती और मुलायम सिंह के समर्थन से परहेज नहीं है और खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश के मुद्दे पर ए राजा की द्रमुक अगर विपक्ष के साथ जुड़ना चाहे तो संभवतः भाजपा को कोईआपत्ति भी नहीं होगी।
[dc]ए[/dc]क लंबे अरसे से विश्लेषकों के एक बड़े समूह का मानना रहा है कि भाजपा अगर मंदिर मुद्दे से अपने को मुक्त कर ले और कांग्रेस अल्पसंख्यकों के तुष्टिकरण की नीति से बरी हो जाए तो फिर दोनों राष्ट्रीय दलों के बीच ज्यादा फर्क नहीं बचेगा।डॉ. मुरली मनोहर जोशी ने पिछले दिनों भोपाल में कहा भी है कि मंदिर मुद्दा भाजपा के एजेंडे में नहीं है। प्रधानमंत्री पद की कुर्सीका झगड़ा नहीं मचे तो दोनों ही दल चाहें तो मिल-जुलकर देश को एक राष्ट्रीय सरकार भी दे सकते हैं।
[dc]ग[/dc]डकरी प्रकरण की इतने लंबे समय तक सिंचाई करके भाजपा राजनीतिक आत्महत्या का ही सामान तैयार कर रही है। येदियुरप्पा के साथ-साथ कांग्रेस के प्रवक्ता अगर भाजपा की इस अंदरूनी खींचतान से दिवाली मना रहे हैं तो उन्हें ऐसा करने का हक है। ऐसा लगता है कि गडकरी की फिल्म को भारतीय जनता पार्टी टिकट खिड़कियों से भीड़ के पूरी तरह से छंट जाने और सिनेमा हॉलों में सन्नाटे के पसरने तक चलाना चाहती है।पार्टी में जैसे कि फैसले लेने वाला कोईबचा नहीं है। और निश्चित ही गडकरी अपने भविष्य के बारे में स्वयं ही कोईनिर्णय कर पार्टीमें नई परंपरा डालने से बचना चाह रहे होंगे।मीडिया की इसे मजबूरी माना जाना चाहिए कि इस समय देश में और कोईबड़ा स्कैंडल उजागर नहीं हो रहा है और गडकरी की ट्रायल में जब तक जान है, उसे भरपूर स्थान और समय देना पड़ेगा और साथ ही आलोचना भी सहनी पड़ेगी।

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