चुपचाप तुम

कुछ भी तो नहीं मांगा
तुमने कभी कुछ मुझसे
न मेरा आकाश
और न ही साम्राज्‍य धरती का।
कभी दिया ही नहीं जानने
तुमने अपने आपको –
कैसा होता है रंग फूलों का,
आता है वसंत किस महीने में।
जीवन भर देखती रहीं तुम
केवल झड़ना पत्‍तों का।
तुम्‍हें पता ही नहीं चला होगा,
कब सूखकर बिखर गया
तुम्‍हारे बालों में लगा गुलाब
सूखी पंखुडि़यों के सहारे ही
तुम पलटती रहीं पन्‍ने
जीवन की किताबों के।
देखो न!
मैं भी भूल गया बताना तुम्‍हें
कैसी होती हैं तितलियां,
दिखता है कैसा
बहता हुआ पानी नदी में।
या कि मचलते हैं किस तरह
बर्फ से ढंके हुए पहाड़।
मुझे पता है –
ढोती रही हो जीवनभर तुम
कई-कई पहाड़ अपने कंधों पर
बोती रही हो नदियों की पंक्तियां
अपनी आंखों के भीतर
जो ढूंढ़ती रहती हैं चुपचाप
रास्‍ते मिलने के लिए
किसी समुद्र में
जो तुमने ही समा रखा है
अपने अंदर
कहीं गहरे में।

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