[dc]कां[/dc]ग्रेस अध्यक्ष श्रीमती सोनिया की बेटी और पार्टी उपाध्यक्ष राहुल गांधी की बहन प्रियंका गांधी अगर थोड़ा और पहले मैदान में कूद जातीं तो सांप्रदायिक ध्रुवीकरण से जहरीली होती चुनावी राजनीति में बहस के मुद्दे कुछ बदल सकते थे, पर वैसा नहीं हुआ। प्रियंका ने एक ऐसे वक्त जुबान खोली है, जब चुनावों को लेकर हवा काफी खराब हो चुकी है। दिल्ली में मतदान के लिए प्रकट होते समय प्रियंका ने जब संक्षिप्त-सी टिप्पणी की थी कि देश में मोदी की कोई लहर नहीं है, तब यही माना गया था कि चूंकि उनसे सवाल ही इस तरह से पूछा गया, इसलिए उसका कोई और जवाब बन भी नहीं सकता था। पर प्रियंका गांधी अपने जिस अवतार में अब प्रस्तुत होकर बयान दे रही हैं, वह कम आश्चर्यचकित करने वाला नहीं है। प्रियंका के ताजा बयान को लेकर यह मानने की भूल भी नहीं करना चाहिए कि उनके द्वारा किया गया हमला अपने चचेरे भाई वरुण गांधी की किसी ताजा कार्रवाई की प्रतिक्रिया में है। प्रियंका वास्तव में अपने परिवार के खिलाफ नरेंद्र मोदी और अन्य भाजपा नेताओं द्वारा किए जा रहे प्रहारों की धार को कमजोर करना चाहती हैं, पर इस सच्चाई को ध्यान में रखते हुए कि वरुण गांधी ने हमलावरों की टीम से अपने आपको हाल-फिलहाल अलग रखा हुआ है। इस हद तक कि उन्होंने राहुल गांधी द्वारा अमेठी में स्वसहायता समूहों के जरिए किए जा रहे काम की सार्वजनिक रूप से तारीफ कर भाजपा में हलचल पैदा कर दी थी। यह बात अलग है कि राहुल के काम की तारीफ के अगले ही दिन वरुण को सफाई भी पेश करना पड़ी।
[dc]प्रि[/dc]यंका गांधी को एक ऐसे समय अपनी मां और भाई की मदद में उतरना पड़ा है, जब कांग्रेस पार्टी आजादी के बाद के अपने इतिहास में सबसे खराब दौर का गिरते-पड़ते हुए सामना कर रही है। और यह भी कि पार्टी में सत्ता से गायब होने के बाद बनने वाली परिस्थितियों को लेकर खौफ व्याप्त है। अत: वरुण गांधी पर प्रियंका का हमला तो केवल एक बहाना है। प्रियंका वास्तव में चुनाव की लड़ाई के मुद्दों को बदलना चाहती हैं, पर उस काम में देरी हो चुकी है। दूसरे यह कि प्रियंका में अपनी दादी के कुछ गुण अवश्य हो सकते हैं, पर वे वैसी ‘इंदिरा गांधी’ नहीं बन सकतीं, जो जनता पार्टी के प्रयोग को भी विफल कर दें और दो-तिहाई से अधिक के बहुमत के साथ कांग्रेस को सत्ता में वापस भी ले आएं।
[dc]ज[/dc]नता पार्टी के जमाने में या उसके बाद भी राजनीति का इस तरह से सांप्रदायिक ध्रुवीकरण करने का षड्यंत्र कभी नहीं देखा गया, जिसमें सभी पक्ष बराबरी के साथ अपना योगदान दे रहे हों। जयप्रकाश नारायण की नैतिक सत्ता को चुनौती देने के लिए भी इंदिरा गांधी पवनार (वर्धा) जाकर ‘संत’ विनोबा भावे की ही मदद लेती थीं, किन्हीं धर्मगुरुओं या इमामों के समर्थन के दम पर उन्होंने आपातकाल का बचाव नहीं किया। इस समय तो सभी पार्टियों ने धर्मगुरुओं और इमामों का सत्ता के लिए आपस में बंटवारा कर लिया है। इसलिए जब प्रियंका कहती हैं कि वरुण उनके भाई हैं और वे रास्ते से भटक गए हैं तो उनके कहे का मतलब यही निकलता है कि गांधी परिवार संकट के दौर में ऐसे विकल्प को भी आजमा लेना चाहता है, जो उसके पास कभी था ही नहीं। प्रियंका मानती रहें कि लोकसभा चुनाव एक वैचारिक युद्ध है, कोई पारिवारिक ‘टी पार्टी’ नहीं। हकीकत यही है कि एक लंबे समय तक कांग्रेस पार्टी, उसके अनेकानेक बेनी प्रसाद और ‘स्वनियुक्त’ प्रवक्ता मोदी के परिदृश्य पर आगमन का मजाक उड़ाते रहे और अहंकार की शतरंज पर एकतरफा चालें चलते रहे। कांग्रेस ने पहले ही दिन से न तो चुनावों को वैचारिक लड़ाई बनने दिया और न ही कभी मुद्दों की परवाह की। धर्मगुरुओं और इमामों के हाथों में चुनावों का भविष्य पहुंच जाने के बाद जब वरुण गांधी को सही रास्ते पर लाने के बहाने प्रियंका वैचारिक युद्ध की बात करती हैं और यह कहती हैं कि परिवार के साथ विश्वासघात हुआ है तो उनके कहे में सच्चाई के मुकाबले भय ज्यादा नजर आता है। मोदी के खिलाफ राहुल गांधी के नेतृत्व में लड़ी जाने वाली ‘कांग्रेस पार्टी की लड़ाई’ प्रियंका के प्रवेश के बाद ‘गांधी परिवार की लड़ाई’ में बदलती नजर आती है। अत: समझा जा सकता है कि प्रियंका इस काम में वरुण को भी ‘परिवार’ के साथ जोड़ना चाहती हैं।
[dc]प्रि[/dc]यंका गांधी के साथ दिक्कत यह है कि वे रायबरेली और अमेठी को ही देश समझते रहना चाहती हैं। प्रत्येक चुनाव के मौके पर सीमित ओवरों की पारी खेलकर वे टेस्ट मैच का परिणाम अपनी पार्टी और परिवार के पक्ष में देखने की मंशा रखती हैं। पिछले चुनाव में भी उन्होंने ऐसी ही पारी खेली थी। और प्रत्येक चुनाव में कांग्रेस पार्टी के नेताओं का एक समूह भी प्रियंका की सक्रिय भूमिका का नारा बुलंद करता है और वोटों की गिनती के बाद सबकुछ ठंडा पड़ जाता है।
[dc]व[/dc]रुण गांधी की मां और इंदिरा गांधी परिवार की छोटी बहू मेनका गांधी का यह मानना सही हो सकता है कि वरुण गांधी को लेकर प्रियंका की टिप्पणी से ‘नर्वसनेस’ जाहिर होती है। गांधी परिवार इस बात से नहीं डर रहा है कि कांग्रेस को विपक्ष की बेंचों पर बैठना पड़ेगा। वह डर इस बात से रहा है कि नरेंद्र मोदी को ‘माननीय प्रधानमंत्री जी’ के रूप में संबोधित करना पड़ सकता है। गुजरात अगर रोल मॉडल है तो गांधी परिवार यह मानने के लिए तैयार नहीं है कि ‘माननीय प्रधानमंत्री जी’ बदले की भावना से काम नहीं करेंगे। साध्वी उमा भारती ने रायबरेली से चुनाव लड़ने से तो इनकार कर दिया था (उनका कहना था कि वे रायबरेली के लिए झांसी की सीट नहीं छोड़ेंगी), पर वे कह रही हैं कि एनडीए के सत्ता में आने के बाद सोनियाजी के जवांई की जगह जेल में होगी। प्रियंका अगर वास्तव में ठान लें कि राजनीति की फिल्म में वे इंदिरा गांधी का रोल निभाने के लिए तैयार हैं और अमेठी और रायबरेली से बाहर निकलकर देश को समझना चाहती हैं, तो चीजें बदल सकती हैं। देखना यही है कि वरुण के मार्फत प्रियंका ने मोदी और भाजपा के खिलाफ जो ‘वैचारिक युद्ध’ शुरू किया है, उसे चुनावों के बाद वे सुल्तानपुर से आगे कितनी दूरी तक ले जाने की तैयारी रखती हैं।