खांटी संपादकों में एक प्रभाष

७ जुलाई २०११

प्रभाष जोशी उस पीढ़ी के थोड़े से बचे हुए संपादकों की जमात का प्रतिनिधित्व करते थे जिन्होंने भाषायी पत्रकारिता को उसके संस्कारित स्वरूप में ही राष्ट्रीय स्तर पर स्थापित करने की हिम्मत की और उसमें सफलता भी हासिल की। राजेन्द्र माथुर के इंदौर से दिल्ली रवाना होने के लगभग डेढ़ दशक पूर्व प्रभाष जोशी देश की राजधानी में पहुंच चुके थे। उन्होंने तब न केवल अपने लिए ही अंग्रेजी पत्रकारिता के आधिपत्य वाले इस गढ़ में जगह बनाने के लिए संघर्ष किया, माथुर साहब सहित हिंदी के अन्य संपादकों और पत्रकारों की आगवानी के लिए भी जमीन तैयार करने का काम किया। अंग्रेजी के मजबूत किले में हिंदी पत्रकारिता की खिड़कियां और उजालदान बनाना तब कोई आसान काम नहीं था। यह वह जमाना था जब देश के अलग-अलग हिस्सों में कई महत्वपूर्ण घटनाएं चल रही थीं और दिल्ली सभी की उत्सुकता का केंद्र बनी हुई थी। दिल्ली में भी राजघाट कॉलोनी स्थित गांधी स्मारक निधि का परिसर और दीनदयाल उपाध्याय मार्ग स्थित गांधी शांति प्रतिष्ठान उन सभी गतिविधियों के ठिकाना बने हुए थे जो आने वाले वर्षों में देश की राजनीति को प्रभावित करनेवाली थीं। राजघाट कॉलोनी में ही प्रभाषजी रहते थे और मैं तथा अनुपम मिश्र भी उनके साथ नजदीक से जुड़े हुए थे। वर्ष 1971 में गुजरात में चले नव निर्माण आंदोलन का नेतृत्व करने वाले युवा नेताओं का तब राजघाट कॉलोनी में ही आना-जाना और हम लोगों से मिलना-जुलना लगा रहता था। फिर वर्ष 1972 के प्रारंभ में चंबल घाटी में हुए डाकुओं के समर्पण के पूर्व की तमाम घटनाओं (मसलन जयप्रकाशजी की केंद्र सरकार के साथ बातचीत आदि) के केंद्रबिंदु भी उक्त दोनों स्थान ही थे। और फिर बिहार आंदोलन (1974) के पहले इंडियन एक्सप्रेस की बिल्डिंग से अंग्रेजी साप्ताहिक ‘एवरीमेंस’ की शुरुआत हुई। फिर हिंदी साप्ताहिक ‘प्रजानीति’ का प्रारंभ हुआ। उन सभी के साथ प्रभाषजी नजदीक से जुड़े थे। जून 1975 के आपातकाल के बाद जनता पार्टी की सरकार बनने का घटनाक्रम चला। हम सब प्रभाषजी के नेतृत्व में इन सब घटनाओं के गवाह रहे। इंडियन एक्सप्रेस में हम काम करते थे और वही आपातकाल में सरकार के निशाने पर था। आपातकाल में ‘प्रजानीति’ को बंद करना पड़ा और नया साप्ताहिक ‘आसपास’ प्रारंभ हुआ। वर्ष 1971 से 1980 के बीच हुई घटनाओं ने प्रभाषजी के उस व्यक्तित्व को काफी कुछ प्रभावित किया जिसे वे इंदौर जैसे परंपरावादी शहर से सहेजते हुए दिल्ली लाए थे। साथ ही अस्सी के इस दशक की घटनाओं ने प्रभाषजी को ऐसे अवसर भी प्रदान किए कि उन्हें फिर पीछे मुडक़र नहीं देखना पड़ा। मसलन वर्ष 1972 में डाकुओं के समर्पण की घटना ने प्रभाषजी को एक तरफ जयप्रकाश नारायण से जोड़ा तो दूसरी ओर अंग्रेजी के अखबारों और उनके संपादकों से परिचय कराया। इस दौरान प्रभाषजी ने हिंदी के साथ-साथ अंग्रेजी में भी खूब लिखा और स्थापित किया कि भाषाई पत्रकार योग्यता में किसी से भी कम नहीं हैं।

इंडियन एक्सप्रेस के मालिक रामनाथ गोयनका और गांधी शांति प्रतिष्ठान के सचिव राधाकृष्णन, दोनों ही व्यक्तियों का प्रभाषजी के उस व्यक्तित्व को गढऩे में महत्वपूर्ण योगदान रहा जिसके दम पर उन्होंने 1980 के बाद के लगभग तीस वर्षों के दौरान उन तमाम कार्यों में योगदान दिया जो उनकी रुचि के थे। वे एक के बाद एक उपक्रम और एक के बाद दूसरी गतिविधि के साथ जुड़ते गए और जो दिल्ली किसी को नहीं पूछती उसमें उन्होंने खूब नाम कमाया। वर्ष 1982 में जब राजेन्द्र माथुर भी इंदौर छोडक़र दिल्ली के बहादुर शाह जफर मार्ग पर ‘नवभारत टाइम्स’ में पहुंच गए तो ‘जनसत्ता’ के बाद एक और अखबार का संपादन इंदौर के खाते में जमा हो गया। इंदौर की ही एक और संपादक डॉ. वेदप्रताप वैदिक पहले से ही नवभारत टाइम्स में उपस्थित थे। सामान्य कॉलेजी शिक्षा और एक साधारण परिवार से निकलकर पत्रकारिता के क्षेत्र में राष्ट्रीय स्तर पर जगह बनाने वाले प्रभाष जोशी ने अपनी इंदौरी छवि और मालवी आत्मा को तमाम उपलब्धियों के बावजूद अंत तक गुम नहीं होने दिया। उन्होंने जो कुछ भी लिखा अथवा प्राप्त किया उसमें नर्मदा और शिप्रा नदियों, सुनवानी महाकाल, कबीर और कुमार गंधर्व की हमेशा तलाशा की जा सकती है। उनके लेखन के मुहावरे मालवा की काली मिट्टी और उस रामायण और महाभारत की कथाओं और उनके नायकों से जुड़े हैं जिनके वर्णन उन्होंने अपनी मां की जुबान से बचपन में सुने थे और कंठस्थ कर लिए थे।

इसे प्रभाषजी की खूबी भी माना जा सकता है और कमी भी कि बैंक के वॉल्ट की तरह जो संसार उन्होंने अपने व्यक्तित्व के इर्द-गिर्द निर्मित कर लिया था उसे भेद कर उनके अंदर के प्रभाष जोशी तक पहुंच पाना बहुत ही कठिन कार्य था। वे पारिवारिक स्तर पर भी औपचारिक बने रहने का साहस सहज रूप से कर लेते थे। उनके नजदीकी मित्रों की दुनिया में किन लोगों का शुमार था इस संबंध में उनके पाठक प्रशंसकों को ज्यादा जानकारी उपलब्ध नहीं है। प्रभाष जोशी अत्यंत सार्वजनिक और सर्वथा उपलब्ध होने वाले संपादक, पत्रकार, लेखक, एक्टिविस्ट, सर्वोदयी, कला रसिक आदि, आदि होते हुए भी अंत तक बहुत ही निजी और मुश्किल से पकड़ में आने वाले व्यक्ति बने रहे। वे सारे काम आखिरी वक्त पर ही पूरे करते थे। ट्रेन भी जब चलने वाली होती तब पकड़ते थे, पर उसे कभी छूटने नहीं देते थे। वे बहुत सारे लोगों को पसंद नहीं करते थे। मेरा शुमार भी ऐसे लोगों में किया जा सकता है। पर वे जिन भी लोगों को पसंद करते थे, उन्हें उन्होंने न सिर्फ अपने साथ हमेशा जोड़ कर रखा, उन्हें अपना पूरा स्नेह और संरक्षण भी दिया। अपनी पसंद और नापसंद को उन्होंने हमेशा खुली किताब की तरह सार्वजनिक रखा। हिंदी के अखबारों की पाठक संख्या इस समय करोड़ों में पहुंच चुकी है। सबसे ज्यादा बिकने वाले देश के दस प्रमुख समाचार पत्रों में भी पांच हिंदी के हैं। पर जब पत्रकारिता पाठ्यक्रमों के विद्यार्थियों से हिंदी के पांच श्रेष्ठ संपादकों के नाम बताने का कहा जाता है तो वे परेशानी में पड़ जाते हैं। इसलिए खांटी की पत्रकारिता करने वाले संपादकों के तौर पर पहले राजेन्द्र माथुर और बाद में प्रभाष जोशी की कमी को अगर गहराई के साथ महसूस किया जाता है तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं। निश्चित ही यह कमी आगे चलकर तो और भी ज्यादा अखरने वाली है।

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