क्‍यों रो रहा है हर कोई, यहां

सबसे पहले आए आगे वे लोग
हिम्‍मत करके ढूंढ़ रहे थे जो
आंसुओं के तूफ़ान में
तिनकों-से तैर रहे सपनों
सूखी हुई मछलियों
टीन के कनस्‍तर में
सहेजकर रखा अनाज
और बीती रात
चटाई के सिरहाने
दबाए हुए चश्‍मे को।
क्‍या बात है!
थम ही नहीं रहे हैं आंसू
दिख रहा है सब कुछ
धुंधला-धुंधला-सा
ले गया तो चुराकर जैसे कोई
गांव की हरी-भरी पहाड़ी
और मीठे पानी का तालाब
सुबह के अंधेरे में।
क्‍या है सफ़ेद-सफ़ेद-सा
चुभ रहा है जो पैरों तले?
क्‍या है जो रिस रहा है
घाव बनकर पैरों की अंगुलियों से?
क्‍या हो गया है आसमान को
जो दिख रहा है इतना साफ़
चांदी की सफ़ेद पन्‍नी की तरह?
रात जैसे लौटने वाले नहीं कभी
सपनों की करने तलाश।
फुसफुसा रहे हैं लोग आपस में
नहीं पड़ेगी ज़रूरत अब कभी
पुलिस-चौकीदार की गांव में।
होंगे जब अजनबी सभी आपस में
नहीं भौंकेगा कुत्‍ता कोई,
किसी राहगीर पर।
पता नहीं चले गए कहां
सारे के सारे पशु-पक्षी एक साथ?
पर बोलता नहीं कहीं कोई कुछ भी
बताता क्‍यों नहीं कुछ भी
हर कोई खड़ा है क्‍यों चुपचाप?
और फिर आईं सबसे अंत में
कुछ ति‍तलियां, लांघते हुए
नन्‍हें–नन्‍हें कदमों से अपने
तूफ़ान से टकराकर बिखरी शिलाओं को।
रखा है आसमान
इन तितलियों ने कंधों पर अपने
ढूंढ़ रही हैं ये तितलियां भी अब
खोया हुआ अपना सामान
कुछ फटी हुई कॉपियां
गली हुई स्‍लेटें गत्‍ते की
कटे हुए रबर, टूटी हुई पेंसिलें
और काग़ज़ की वह नाव
जो रखी थी बनाकर बस्‍ते में रात को
तैयारी जो करनी है, जाने की स्‍कूल
डांटेंगी टीचर नहीं तो।
पर यह क्‍या?
भीड़ में समाए हुए
इतने सारे चेहरों के बीच भी
क्‍यों दिखाई नहीं दे रहे हैं
वे हाथ जो सहलाते थे
इन तितलियों को दिन-रात
क्‍यों रो रहा है हर कोई यहां?

Leave a comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *