७ अक्टूबर २०११
जन लोकपाल विधेयक पर राजनीतिक दलों को समर्थन के लिए बाध्य करने का अन्ना हजारे का रालेगण सिद्धि घोषणा-पत्र ‘लोकशाही’ को मजबूत करने की दिशा में कितना मददगार सिद्ध होगा, इस पर बहस की जा सकती है। संसद के शीतकालीन सत्र में विधेयक पारित न करवाए जाने की स्थिति में अन्ना द्वारा कांग्रेस के खिलाफ उठाए जाने वाले कदम से वे तमाम ‘पार्टी निरपेक्ष’ लोग आश्चर्यचकित हैं जिन्होंने ‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन’ के आह्वान पर भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन में भाग लेकर ‘मैं भी अन्ना’ की टोपियां पहनी थीं और अपनी हथेलियों को मोमबत्तियों की लौ से तपाया था। गैर-कांग्रेसी राजनीतिक दलों के लिए अन्ना की घोषणा में प्रसन्न होने के स्पष्ट कारण ढूंढ़े जा सकते हैं। उत्तरप्रदेश सहित पांच राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों में अगर अन्ना जनता से अपील करते हैं कि ‘वह कांग्र्रेस को बुरी तरह हराए’ तो अनुमान लगाया जा सकता है कि देश की राजनीति का ऊंट किस करवट बैठने की तैयारी में है। सबको पता है कि कांग्रेस ने अपने राजनीतिक भविष्य के लिए उत्तरप्रदेश के चुनावों से कितनी उम्मीदें लगा रखी हैं। अन्ना का स्पष्ट मानना है कि ‘यूपीए की सरकार चूंकि सत्ता में है, यह उसकी जिम्मेदारी है कि वह लोकपाल बिल संसद में पास कराए।’ कांग्रेस भी ऐसा ही मानती है और अन्ना से सहमति रखती है, इसमें शक की गुंजाइश है। जिस तरह से अन्ना जन लोकपाल विधेयक को संसद में पास करवाना देशहित में समझते हैं कांग्रेस शायद वैसा न कर पाने को ही लोकतंत्र के हित में मानती है। कांग्रेस को देश के समक्ष स्पष्ट करना चाहिए कि क्या अनशन तुड़वाने के पहले उसने अन्ना को कोई लिखित या मौखिक आश्वासन दिया था कि संसद के शीतकालीन सत्र में जन लोकपाल बिल को पारित करवाना उसकी जिम्मेदारी रहेगी। जितनी देश को जानकारी है उसके अनुसार तो सरकार द्वारा पेश किए गए लोकपाल बिल के अलावा अन्ना का जनलोकपाल बिल, अरुणा राय की टीम द्वारा तैयार किया गया विधेयक, जयप्रकाश नारायण का विधेयक एवं अन्य प्रस्तावों को भी संसद की स्थायी समिति के पास भेज दिया गया था और यह कार्रवाई अन्ना द्वारा अनशन समाप्त किए जाने के पूर्व संपन्न हो चुकी थी। तीन अन्य शर्तें, जिन्हेंं अन्ना अपना अनशन तोडऩे के पूर्व विधेयक में शामिल करवाना चाहते थे और जिन पर संसद ने ध्वनिमत से अपनी सहमति दी थी वे सिटिजन चार्टर लागू करने, राज्यों में लोकायुक्तों की स्थापना करने और सभी स्तरों पर कार्य करने वाले सरकारी अधिकारियों को विधेयक के दायरे में लाने की थीं। अन्ना के अनशन तोडऩे की पूर्व संध्या पर, जब रामलीला मैदान में विजय का जश्न मनाया जा रहा था, कांग्रेस नेता मणिशंकर अय्यर ने एक टीवी चैनल की बहस में दावा किया था कि टीम अन्ना की किसी भी मांग को सरकार ने स्वीकार नहीं किया है। अगली सुबह (अनशन टूटने से पहले) प्रकाशित हुए समाचार पत्रों में भी अय्यर का यही कथन छपा था। अत: स्पष्ट है कि जन लोकपाल विधेयक के समूचे मुद्दे और संसद द्वारा पारित तीनों शर्तों को संसद की स्थायी समिति के पास भेजकर सरकार ने अपने आप को तमाम जिम्मेदारियों से मुक्त मान लिया था। पर अन्ना और उनकी टीम निश्चित ही ऐसा नहीं मानती और कांग्रेस के खिलाफ व्यक्त वर्तमान आक्रोश उसी का परिणाम भी है।
जन लोकपाल विधेयक को लेकर कांग्रेस निश्चित ही टीम अन्ना को लिखित में कोई समर्थन नहीं देना चाहती है और न ही ऐसा कोई आश्वासन देगी कि शीतकालीन सत्र में जन लोकपाल विधेयक पारित करवा दिया जाएगा। अन्ना का जिस तरह का प्रभाव देश की जनता पर वर्तमान में कायम है उसके चलते बहुत मुमकिन है कि वे अपनी बात को मनवाने के प्रयासों में कांग्रेस को पांचों राज्यों के विधानसभा चुनावों में हरवाने में सफल हो जाएं। पांच राज्यों में सबसे महत्वपूर्ण उत्तरप्रदेश है और वहां मायावती को अपदस्थ करना वैसे भी कठिन कार्य है। उत्तराखंड में भाजपा और पंजाब में भाजपा-अकाली गठबंधन सत्ता में है। केवल गोवा और मणिपुर में कांग्रेस की हुकूमतें हैं। बहुत मुमकिन है विधानसभा चुनावों के बाद अन्ना कांग्रेस को सबक सिखाने की अपनी लड़ाई लोकसभा चुनावों तक बढ़ा दें। मुद्दा यह है कि अपनी अंदरूनी खींचतान और भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरी कांग्रेस इस नई स्थिति का किस तरह से मुकाबला करना चाहेगी? क्या कांग्रेस को चुनावों में हार की डर से अन्ना की सभी मांगें मानते हुए संसद के अगले सत्र में जन लोकपाल विधेयक किसी भी कीमत पर पारित करवा देना चाहिए?
अन्ना का अनशन समाप्त हुए डेढ़ माह पूरा होने जा रहा है। इस दौरान लोकपाल की स्थापना को लेकर प्रकट हुए सरकार के रुख को लेकर चिंता व्यक्त की जा सकती है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ चले एक बड़े आंदोलन को कांग्रेस इतने इत्मीनान से निगल लेना चाहती है कि जैसे कि रामलीला मैदान और देश में कभी कुछ हुआ ही न हो। दूसरी ओर, सरकार की कथित वादाखिलाफी से अन्ना की टीम भी इतनी नाराज हो जाना चाहती है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ चले एक जनांदोलन की आकांक्षाओं को ‘सिविल सोसायटी विरुद्ध कांग्रेस’ के बीच संघर्ष में तब्दील कर देना चाहती है। अन्ना के जनांदोलन का यह रूप परिवर्तन अपने उद्देश्यों में और ऊपरी तौर पर सत्ता में भागीदारी प्राप्त करने का आभास न देना चाहे तो भी उसके अंतिम परिणाम तो पूरी तरह से ‘राजनीतिक’ ही प्राप्त होने वाले हैं। आरोप यह भी लग सकता है कि सत्ता में गैर-कांग्रेसवाद की स्थापना का माध्यम एक जनांदोलन को बनाया जा रहा है। अत: देश की असली चिंता यह नहीं है कि अन्ना की चुनौती के मुकाबले में कांग्रेस अपनी नाक को ऊंची रखते हुए चुनावों में हार का जोखिम भी मोल लेने को तैयार है बल्कि यह है कि टीम अन्ना और कांग्रेस के बीच होने वाली इस लड़ाई में असली हार किसी पार्टी विशेष की नहीं बल्कि जनता की होने वाली है। उस जनता की जिसने उम्मीद की थी कि एक सार्थक जनांदोलन का अंतिम परिणाम भी सकारात्मक ही निकलेगा राजनीतिक नहीं। उस स्थिति में जनता अपनी हार के लिए किसे दोषी ठहरा सकेगी? दूसरे यह भी कि अगर असली लड़ाई भ्रष्टाचार की समाप्ति के लिए देश में एक सशक्त जन लोकपाल की स्थापना को लेकर है तो कांग्रेस को हरा देने के बाद भी उसे कैसे जीता जा सकेगा?