[dc]वर्ष[/dc] 1984 के चुनावों में भाजपा को मात्र दो सीटें मिली थीं, पर इसके बावजूद पार्टी में कोई विद्रोह नहीं हुआ। पार्टी नेतृत्व को हार के लिए सार्वजनिक रूप से नहीं कोसा गया। न ही लोगों ने पार्टी छोड़कर कोई तूफान मचाया। कांग्रेस को 2014 के चुनावों में 44 सीटें प्राप्त हुई हैं पर पार्टी पूरे देश में मातम मना रही है। ऐसा जताया जा रहा है, जैसे सत्ता के जाते ही पार्टी का सबकुछ लुट गया है।
[dc]श्रीमती[/dc] इंदिरा गांधी की हत्या के बाद वर्ष 1984 में हुए चुनावों में जिन दलों का लगभग सफाया हो गया था, उनमें भारतीय जनता पार्टी भी थी। राजीव गांधी के नेतृत्व में तब कांग्रेस को 414 सीटें मिली थीं। जनता पार्टी के विघटन के बाद अपना पहला चुनाव लड़ रही भारतीय जनता पार्टी को तब केवल दो सीटें प्राप्त हुई थीं। इनमें एक सीट आंध्र प्रदेश में हनमकोंडा की थी, जहां से सीजे रेड्डी ने पीवी नरसिंह राव को एक ऐसे समय हराया था, जब समूचे देश में कांग्रेस के पक्ष में सहानुभूति की लहर चल रही थी। यह हार उन्हीं नरसिंह राव की हुई थी, जो कि सात वर्षों के बाद प्रधानमंत्री बनने वाले थे और जिनके कि दरबार में डॉ. मनमोहन सिंह को वित्त मंत्री का भार संभालकर नई आर्थिक नीतियों की देश में शुरुआत करना थी। दूसरी सीट भाजपा को गुजरात के मेहसाणा से मिली थी, जहां उसके उम्मीदवार अमृतभाई पटेल जीते थे। बस, भाजपा का खेल इतने पर खत्म हो गया था। तब चुनाव हारने वालों में अटल बिहारी वाजपेयी (ग्वालियर), सुषमा स्वराज (करनाल), वसुंधरा राजे (भिंड), उमा भारती (खजुराहो), स्व. प्रमोद महाजन (मुंबई उत्तर-पूर्व), राम जेठमलानी (मुंबई उत्तर-पश्चिम), मुरली मनोहर जोशी (अलमोड़ा) और राजनाथ सिंह (मिर्जापुर) शामिल थे। पर इतनी बड़ी हार के बावजूद भारतीय जनता पार्टी में कोई विद्रोह नहीं हुआ। पार्टी नेतृत्व को हार के लिए सार्वजनिक रूप से नहीं कोसा गया। एक-दूसरे पर कीचड़ नहीं उछाला गया। न ही लोगों ने पार्टी छोड़कर कोई तूफान मचाया। नेता और कार्यकर्ता 1989 की तैयारियों में जुट गए। उन्होंने कोई भविष्यवक्ता भी यह बताने के लिए नहीं तलाशा कि वर्ष 1991 में कांग्रेस की सरकार उसी व्यक्ति के नेतृत्व में बनेगी, जिसे भाजपा के उम्मीदवार ने वर्ष 1984 में हराया था।
[dc]कांग्रेस[/dc] को 2014 के चुनावों में 44 सीटें प्राप्त हुई हैं पर पार्टी पूरे देश में मातम मना रही है। 16 मई को मतों की गिनती पूरी हो चुकी थी। दो महीनों से ज्यादा का वक्त गुजर जाने के बाद भी कांग्रेस के आंगन में शोक की बैठकें चल रही हैं। असम से महाराष्ट्र और जम्मू-कश्मीर से हरियाणा तक पार्टी में विद्रोह की चिंगारियां फूट रही हैं। सोनिया और राहुल गांधी के आवासों की चौखटों पर मुलाकातों के लिए सिर कूटने वाले नेता, नेतृत्व को चुनौती दे रहे हैं। पार्टी की हार के लिए राहुल गांधी को दोषी करार दिया जा रहा है। ऐसा जताया जा रहा है, जैसे सत्ता के जाते ही पार्टी का सबकुछ लुट गया है।
[dc]कल्पना[/dc] ही की जा सकती है कि वर्ष 1984 के चुनावों में भाजपा के प्रदर्शन की तरह कांग्रेस को अगर इस बार दो सीटें ही मिलतीं और 1977 के चुनावों में जिस तरह से श्रीमती इंदिरा गांधी और संजय गांधी हार गए थे, वैसे ही इस बार सोनिया गांधी और राहुल गांधी हार जाते तो कांग्रेस पार्टी की आज हालत और कितनी खराब बनती! वर्ष 1977 के चुनावों में कांग्रेस की कोई दो सौ सीटें (197) कम हो गई थीं और इंदिरा गांधी भी सत्ता से बाहर हो गई थीं, पर उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। पार्टी के अंदर और बाहर की लड़ाई को वे हिम्मत के साथ लड़ती रहीं और 1980 के चुनावों में जिस तरह के बहुमत के साथ वे लौटकर सत्ता में आईं, वह भी एक इतिहास है।
[dc]कांग्रेस[/dc] को सत्ता में रहते हुए इतना लंबा अरसा हो गया था कि सरकार से बाहर रहकर एक मजबूत विपक्षी की भूमिका निभाना उसके लिए अब दूभर बन रहा है। कांग्रेसी सुख के दिनों में तो सुखी रहना ही चाहते हैं, दु:ख में भी सुख की लालसा बनाए रखना चाहते हैं। कांग्रेस में केंद्रीय नेतृत्व को वर्तमान में दी जा रही चुनौतियां और महाराष्ट्र, असम आदि राज्यों में नेतृत्व परिवर्तन की मांग उसी दु:ख के व्यापक होने के संकेत हैं। कांग्रेस की दिक्कत यह कही जा सकती है कि वह राहुल गांधी (और सोनिया गांधी भी) के नेतृत्व से अपने को मुक्त भी करना चाहती है और उसके पास माथा टेकने के लिए और कोई चौखट भी नहीं है। राहुल गांधी और सोनिया गांधी अगर अपना नेतृत्व जारी रखने से इंकार कर दें तो कांग्रेस का माई-बाप कौन होगा, किसी को पता नहीं।
[dc]सही[/dc] पूछा जाए तो सोलहवीं लोकसभा के लिए हुए चुनावों के बाद देश को कांग्रेस में जिस विपक्ष की तलाश थी, वह थोथी साबित होती जा रही है। कांग्रेसी नेताओं की जुबानों और मुख-मुद्राओं से वही अहंकार टपक रहा है, जो यूपीए शासनकाल के दौरान दस वर्षों तक देखा गया। संसद के भीतर और उसके बाहर कांग्रेस का देश की जनता के प्रति कृतज्ञता का कोई भाव नहीं है। ऐसा जाहिर होता है कि कांग्रेस सत्ता से बाहर होते हुए भी देश और सरकार पर शासन जारी रखना चाहती है। उसकी इस कोशिश का परिणाम यही हो रहा है कि सत्तारूढ़ दल से निपटने में बाकी विपक्षी पार्टियां भी अपने आपको असहाय पा रही हैं। मुलायम सिंह जब कांग्रेस को ललकारते हैं कि वह अब सड़कों पर आकर जनता की लड़ाई लड़े तो कांग्रेस के नेता उत्तर प्रदेश की कानून-व्यवस्था की स्थिति पर समाजवादी पार्टी की धज्जियां उड़ाने लगते हैं। कांग्रेस अपने साथ शेष विपक्ष को भी लेकर डूबना चाहती है।
वर्ष 1984 के चुनावों में कांग्रेस को 414 सीटें मिली थीं, पर राजीव गांधी इतने बड़े बहुमत को संभाल नहीं पाए। पांच साल बाद हालात फिर कांग्रेस के खिलाफ हो गए। वैसी ही स्थिति हाल के चुनावों में प्रकट हुई। दस वर्षों तक सत्ता में बने रहने के बाद पार्टी को इतने अपमानजनक तरीके से बाहर होना पड़ेगा, इसका संकेत भी कांग्रेस ने बाहर नहीं आने दिया। 1977 के लोकसभा चुनावों में जनता इंदिरा गांधी और संजय गांधी से आपातकाल की ज्यादतियों का बदला लेना चाहती थी। समूचा देश गुस्से से भरा बैठा था। जयप्रकाश नारायण उस नाराजगी का नेतृत्व कर रहे थे। इसके बावजूद भी कांग्रेस 34.52 प्रतिशत मतों के साथ 153 सीटें प्राप्त करने में कामयाब रही थी। तब क्या यह निष्कर्ष निकाल लिया जाए कि कांग्रेस के प्रति इस बार की नाराजगी आपातकाल के दिनों से भी ज्यादा गहरी थी?
[dc]इसमें[/dc] दोमत नहीं होना चाहिए कि कांग्रेस का बने रहना भी जरूरी है और संसद में उसकी एक प्रमुख विपक्षी दल के रूप में भूमिका भी देशहित में आवश्यक है। एक ऐसी स्थिति तो स्वयं भारतीय जनता पार्टी के हितों के खिलाफ होगी कि समूची संसद विपक्षरहित हो जाए और संसद के भीतर उसके ही सांसदों को और बाहर आम जनता को विरोधी पक्ष की भूमिका भी निभानी पड़े। पर अगर कांग्रेस की बीमारी इसी तरह से कायम रहती है तो आश्चर्य नहीं कि अगले चुनावों तक संसद में प्रमुख राष्ट्रीय विपक्षी दलों की जगह क्षेत्रीय दलों की कतरनें ही नजर आएं। यह चिंता का विषय हो सकता है कि सत्ता से बाहर हो जाने के बावजूद कांग्रेस की चाल-ढाल, आवाज और तेवरों में तो ज्यादा फर्क नहीं आया है पर इधर हमारे नए शासनकर्ताओं के अंदाज और स्वर तेजी से बदलने लगे हैं। नरेंद्र मोदी ने चुनावों के दौरान नारा ‘कांग्रेसमुक्त भारत’ का दिया था। मोदी तो अपने नारे को भुला बैठे हैं, पर कांग्रेसी उसे अब ‘भारत से मुक्त कांग्रेस’ में बदलते दिखाई पड़ रहे हैं।