[dc]आ[/dc]जादी की पूर्व संध्या पर देश का जो विभाजन भारत और पाकिस्तान के रूप में अंग्रेजों ने किया था, लाहौर में हुई सरबजीत की मौत ने उसे पूरा कर दिया। अंग्रेजों द्वारा अधूरी छोड़ी गई वे तमाम औपचारिकताएं इस एक मौत के साथ पाकिस्तान ने पूरी कर दीं, जिनका संबंध जाति, धर्म, संप्रदायों से अलग मानवीय संवेदनाओं के साथ था। सरबजीत की मौत इतिहास में केवल इसलिए दर्ज होना चाहिए कि दुनिया को भी पता चले कि एक ही कोख से जन्मे भारतीय उपमहाद्वीप के देशों का एक भाग अतीत के जख्मों को भविष्य की खुशियों में बदलने के शानदार अवसर को किस तरह गंवाने की जुर्रत कर सकता है।
[dc]व[/dc]क्त की सूई ने सरबजीत के बहाने पाकिस्तान को एक मौका दिया था जिसके जरिए वह कारगिल की अपनी हार को जीत के जश्न में बदल सकता था, अपने यहां की आतंकवादी शक्तियों को एक संदेश दे सकता था और दोनों देशों के बीच रुक-रुककर चलने वाली असली-नकली द्विपक्षीय वार्ताओं को एक जीती-जागती हकीकत में बदल सकता था। और सबसे ज्यादा यह कि भारत पर अहसान लाद सकता था। पर सरबजीत पर जेल में हुए बर्बर और जानलेवा आक्रमण और भारतीय संसद की आबरू पर किए गए हमले के बीच के फर्क को भी पाकिस्तान ने पूरी तरह से समाप्त कर दिया। भारतीय जनता की आत्मा के लिए अब दोनों हमले एक हो गए हैं। ऐसा इसलिए कि सरबजीत पर जानलेवा आक्रमण भारतीय संसद पर हमले के गुनाहगार अफजल गुरु को दी गई फांसी का बदला बताया गया है। अगर ऐसा सही है तो भारत की सवा सौ करोड़ जनता को ऐसे और कई सदमे झेलने और सरकार की नपुंसकता से रू-ब-रू होने के लिए तैयार रहना चाहिए। पाकिस्तान की जेलों में आज भी कोई पौने तीन सौ भारतीय बंद हैं, जिनमें दो सौ से ज्यादा मछुआरे हैं। पाकिस्तान की जेल में सरबजीत के साथ हुई हरकत और फिर उसके इलाज के सिलसिले में भारत की प्रार्थनाओं को इस्लामाबाद द्वारा ठुकरा देना इसी बात का प्रमाण है कि समूचे घटनाक्रम ने पाकिस्तान के बजाए हमें ही ज्यादा शर्मिंदा किया है। हत्या के दोषी अपने दो नौसैनिकों को भारतीय कानून के नियंत्रण से मुक्त कराने के लिए इटली ने अपनी समूची ताकत को दांव पर लगा दिया। नौसैनिकों को भारत भेजने के विरोध में वहां के मंत्री ने इस्तीफा तक दे दिया। और, हम हैं कि अन्यायपूर्ण तरीके से पाकिस्तानी जेल में बंद अपने निरपराध नागरिक की सुरक्षा की गारंटी भी प्राप्त नहीं कर सके। हम उसकी रिहाई की मांग का नाटक करते रह गए और पाकिस्तान ने हमें उसका शव वापस किया। हमारा कोई भी मंत्री कभी इस्तीफा नहीं देने वाला है। सबसे ज्यादा चिंता की बात तो यह है कि हमारे हुक्मरान हमें लगातार अपमानित होने और अपमानों को सहते रहने का अभ्यस्त बना रहे हैं।