ओसामा खत्म हुआ है, आतंकवाद नहीं

२ मई २०११

आतंकवाद के खिलाफ अमेरिका की लड़ाई कितने खतरनाक मुकाम पर पहुंच चुकी है उसका अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि ओसामा बिन लादेन को तोरा-बोरा के पहाड़ों में बनी गुफाओं में नहीं बल्कि पाकिस्तान की नाक के तले इस्लामाबाद के उत्तर में केवल पचास किलोमीटर की दूरी पर स्थित एक किलेनुमा आलीशान मकान पर हमला कर मार गिराया गया। अत्याधुनिक शस्त्रों से सज्जित अमेरिकी फौजी दस्तों की गोलियां लादेन के सिर में लगीं और दस साल पहले सितंबर 2001 में प्रारंभ हुआ लादेन का आतंक केवल चालीस मिनटों में खत्म हो गया। बराक ओबामा के लिए यह कहना कि इस गुप्त ऑपरेशन में पाकिस्तान का भी सहयोग प्राप्त था, अमेरिका की कूटनीतिक मजबूरी है। अमेरिकी प्रशासन ने ही यह भी उजागर कर दिया है कि यह गुप्त ऑपरेशन पिछले दस महीनों से शक्ल ले रहा था और इसकी जानकारी केवल बराक ओबामा और उनकी अत्यंत विश्वस्त टीम को ही थी, पाकिस्तान को भी नहीं। पर अमेरिका यह भी जानता है कि लादेन की मौत केवल एक सांकेतिक उपलब्धि है। आतंकवाद की असली मौत अभी बाकी है और उसमें कितना वक्त लगेगा कहा नहीं जा सकता। सितंबर 2001 में जब न्यूयार्क और वाशिंगटन में अल-कायदा के हमले हुए थे और कोई तीन हजार लोगों की जानें गई थीं, तब तत्कालीन राष्ट्रपति जार्ज बुश ने आतंक के सरगना ओसामा के गले में न्याय का फंदा लटकाने की कसम खाई थी, पर अपने कार्यकाल में वे उसे पूरा नहीं कर सके। जो काम बुश नहीं कर सके, बराक ने कर दिखाया। बराक के लिए यह उपलब्धि अमेरिकी जनता पर अपनी प्रशासनिक हुकूमत को बनाए रखने के लिए भी बहुत जरूरी हो गई थी। अमेरिका इस समय जिस तरह के आर्थिक संकट के दौर से गुजर रहा है और एक महाशक्ति के रूप में उसके अहंकार को चीन की ओर से जो चुनौती मिल रही है, वह ओबामा को अगले साल होने वाले राष्ट्रपति पद के चुनावों के लिए भारी पड़ सकती थी। पर ओसामा के सिर पर लगी अमेरिकी गोलियों ने ओबामा के भाग्य की रेखाओं को चाहे हाल-फिलहाल के लिए ही क्यों न सही, बदल कर रख दिया है। ओसामा की मौत की खबर के तत्काल बाद वाशिंगटन में व्हाइट हाउस के बाहर जिस तरह से अमेरिकियों की भीड़ उमड़ पड़ी, वह बराक ओबामा की रातों-रात बढ़ी प्रसिद्धि का प्रमाण थी। यह प्रसिद्धि कितनी स्थायी है अभी कहा नहीं जा सकता। इसका पता तब चलेगा जब ‘ऑपरेशन ओसामा’ की असली परतें धीरे-धीरे खुलेंगी और पूरे घटनाक्रम में पाकिस्तान और उसकी खुफिया एजेंसी आईएसआई की भूमिका से परदा हटेगा और पाकिस्तान की जनता इस सदमे से उबर पाएगी कि उसकी सेना और हुक्मरानों की बगैर नींद हराम किए अमेरिकी सैनिक इस्लामाबाद की छाती पर मूंग दलकर चले भी गए। पाकिस्तान की जनता के लिए ओबामा के इस दावे पर यकीन करना और राष्ट्रपति जरदारी के लिए उसका खंडन करना हमेशा मुश्किल काम रहेगा कि पूरा ऑपरेशन दोनों देशों के आपसी सहयोग से निपटाया गया। इससे भी बड़ा जो खतरा सामने दिख रहा है, वह यह है कि अमेरिका और अन्य पश्चिमी देशों को अलकायदा के खिलाफ आतंकवाद की असली लड़ाई से रू-ब-रू होना पड़ सकता है। ओसामा बिन लादेन चाहे पिछले कई सालों से निष्क्रिय होकर जान बचाने के लिए छुपता रहा हो, उसकी मौत अल कायदा को नए सिरे से संगठित कर बदला लेने के लिए उकसा सकती है। इस लड़ाई में पाकिस्तान किस तरह से करवट लेता है वही अमेरिका के साथ उसके भविष्य के संबंधों और अफगानिस्तान में नाटो मुल्कों की उपस्थिति और वहां से वापसी का टाइम-टेबल भी तय करेगी। ओबामा तय कर लेते तो ओसामा को जिंदा भी पकड़ा जा सकता था। पर ओबामा शायद पाकिस्तान में सद्दाम हुसैन की कहानी नहीं दोहराना चाहते थे। ऐसा करने के लिए कीमत कहीं ज्यादा देनी पड़ती। अमेरिकी जनता और दुनिया के दूसरे मुल्क भी ओसामा की मौत में थोड़ा आश्वासन ढूंढ सकते हैं कि आतंकवाद के खिलाफ संघर्ष में पिछले दस सालो
ं के दौरान दिए गए निरपराध नागरिकों के बलिदान व्यर्थ नहीं गए हैं। आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई चाहे जारी रहे, दुनिया भर के बच्चों के दिल से ओसामा का डर समाप्त करने के लिए तो बराक ओबामा को बधाई ही दी जा सकती है।

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