१६ मई २००९
यूपीए को मिले जन समर्थन से वे लोग भी हतप्रभ हैं, जिन्होंने वोट तो कांग्रेस को दिया था, पर प्रधानमंत्री पद के लिए उम्मीदवार की घोषणा के लिए प्रकाश करात का मुंह ताक रहे थे या फिर लालकृष्ण आडवाणी की ओर देख रहे थे। वर्ष 1991 में राजीव गांधी की नृशंस हत्या से उपजी सहानुभूति के कारण मिले जन समर्थन के अठारह साल बाद कांग्रेस को मिली इस जीत की खूबी केवल यही है कि इस बार उल्टा हो गया कि मतदाता उम्मीदवारों के विश्वास पर खरे नहीं उतरे। आमतौर पर राजनीतिक दल मतदाताओं को ठगते हैं, पर इस बार सब पलट गया। पंद्रहवीं लोकसभा के लिए लड़े गए चुनावों में राजनेताओं के बीच एजेंडे पर देश नहीं था। न ही कोई लहर थी। दांव पर यही था कि कौन किसके खिलाफ कितनी तेज आवाज में अपमानजनक भाषा का इस्तेमाल कर सकता है। लगभग सभी राजनीतिक दल और उनके उम्मीदवार यही मानकर चल रहे थे कि बहुमत किसी को भी नहीं मिलने वाला है। श्रीमती सोनिया गांधी ने जब लोक जनशक्ति पार्टी के नेता को दो दिन पहले फोन किया, तब स्वयं कांग्रेस अध्यक्ष को भरोसा नहीं रहा होगा कि 1997 में देशभर में सर्वाधिक मतों से जिताने वाला हाजीपुर, रामविलास पासवान को इस तरह से अपमानित कर देगा। चुनाव परिणामों का लब्बोलुवाब यही है कि आम नागरिक को अब खुशहाली के सपने दिखाने वाले चेहरों की ही तलाश है। खैनी चबाकर तुंदियाए बदन से गले में ढोल डालकर मसखरी करने वाले नेता अब बर्दाश्त से बाहर हो गए हैं। भावनाएं भडक़ा कर भाषणों के धार्मिक स्थल खड़े करने की गर्जनाएं भी अब गले नहीं उतरने वालीं, यह भी मतदाताओं ने स्पष्ट कर दिया है।
प्रधानमंत्री के रूप में डॉ. मनमोहन सिंह कतई ओजस्वी नहीं कहे जा सकते हैं। एक ऐसे समय में जब अमेरिका जैसा राष्ट्र युवा नेतृत्व में सपनों की तलाश कर रहा है, भारतीय मतदाता अगर अपने रुपए का विनिमय डॉ. मनमोहन सिंह के जरिए ही ओबामा के डॉलर से करने की इच्छा व्यक्त करता है तो उसकी पीछे उसकी राजनीति के प्रति हताशा को तलाश किया जाना चाहिए। भारतीय मतदाता ने यूपीए को समर्थन नहीं दिया है, विपक्षी दलों के खिलाफ अपना निगेटिव वोट दिया है। पांच वर्षों के लिए देश में राजनीतिक स्थायित्व की इस मतदान के जरिए मांग की है। देश के आम नागरिक ने शायद अपना समर्थन देश के उभरते युवा नेतृत्व और उसकी आकांक्षाओं के प्रति व्यक्त किया है। ये चुनाव परिणाम राजनीति से उस पीढ़ी को इतिहास के पन्नों में धकेलने वाले हैं जो आजादी प्राप्ति के बाद से ही अपनी शहादतों के नाम पर सत्ता में भागीदारी के दावे ठोकती रही है। मुमकिन है कि कुछ अपराधी किस्म के चेहरे इस बार भी चुनकर आए हों और लोकसभा की 543 सीटों में कुछ पर अपना कब्जा भी जमा लें, पर चुनाव परिणामों के संकेत यह भी हैं कि यह लंबे समय तक चलेगा नहीं। राज्यों की विधानसभाओं के बाद लोकसभा के लिए हुए मतदान में एक ट्रेंड है और वह यह कि लोग स्थायित्व चाहते हैं। यूपीए का पिछले पांच सालों का रिकार्ड कोई महान नहीं था कि इतनी तकलीफें सहने के बाद भी लोग उसमें विश्वास व्यक्त करते। इसकी वजह तलाश की जानी चाहिए। विपक्षी दलों को भी और कांग्रेस को भी।