आतंकित करती नागरिक उदासीनता

सुरक्षा व्यवस्था को लेकर उजागर होने वाली प्रत्येक कमी के लिए खुफिया तंत्र को दोषी ठहराना एक शगल बन गया है। हमने यह नहीं देखा कि हमारे खुफिया और सुरक्षा तंत्र का पिछले तमाम वर्षों में कितना राजनीतिकरण हो गया है और आम नागरिक के हित जिसकी लाठी उसकी भैंस पर आधारित हो गए हैं। खुफिया तंत्र का बड़ा काम अब यह हो गया है कि जो भी सत्ता में है उनक विरोधियों की चालों पर नजरें रखे। सुरक्षा तंत्र की जिम्मेदारियां राजनीति के सफेद हाथियों की हिफाजत और कानून-व्यवस्था बनाए रखने तक सीमित रह गई हैं। वीआईपी इलाके में अगर कोई बूढ़ा स्वतंत्रता संग्राम सेनानी गलती से भी रास्ता भूलकर पहुंच जाए, तो पकड़ लिया जाएगा और आम नागरिकों की बस्तियों में गुंडे योजनाबद्ध तरीके से उत्पात भी मचाते रहें, तो भी कोई कार्रवाई नहीं होगी। अत: आतंकवाद से निपटने का मुद्दा अब केवल राज्य (स्टेट) और आतंकवादियों के बीच तक सीमित नहीं रह गया है। यह मुद्दा अब नागरिकों और आतंकवादियों के बीच आपसी कार्रवाई का भी हो गया है।

गौर करने लायक है कि जब नागरिकों के दो समुदाय सड़कों पर खुलेआम हिंसक सांप्रदायिक संघर्ष में जुट जाते हैं तब वे राज्य (स्टेट) से न तो कोई आज्ञा प्राप्त करते हैं और न ही उसके (स्टेट के) हस्तक्षेप को ही बर्दाश्त करते हैं। कोशिश तब राज्य की सत्ता को चुनौती देने की ही रहती है। पर जब हमला चोरी छिपे या पीछे से होता है, तो वही नागरिक अपनी हिफाजत के लिए स्टेट का मुंह ताकता है और उसमें जरा सी भी कमी या खोट प्रकट होने पर पूरी व्यवस्था को ही निकम्मी करार देता है। हाल की आतंकवादी कार्रवाइयों के बाद उपजा नागरिक रोष कुछ इसी तरह की अभिव्यक्ति है। तमाम आतंकवादी कार्रवाइयों की जांच-पड़ताल में यह लगभग स्थापित हो चुका है अधिकांश मामलों मंे दुश्मन कहीं बाहर से नहीं आए। ‘बाहर’ से मदद और ‘सहानुभूति’ से इंकार नहीं किया जा सकता। जब नागरिक जानता है कि दुश्मन उन्हीं के बीच ‘नागरिक’ का मुखौटा पहने हुए है, तो उसकी पहचान करने अथवा उसके प्रति सावधानी बरतने का प्रथम दायित्व भी नागरिक का ही बन जाता है। सिस्टम (व्यवस्था) अपनी जिस जिम्मेदारी से बचता रहा या उसमें चूक करता रहा वह यह है कि उसने नागरिकों को किसी भी प्रकार की आपदा से मुकाबला करने के लिए प्रशिक्षित नहीं किया। कोई बड़ी प्राकृतिक आपदा आए या फिर आतंकी हमला हो, नागरिकों की पहली प्रतिक्रिया उसके प्रति स्टेट रिस्पांस को लेकर होती है स्वयं के रिस्पांस की नहीं।

समूची व्यवस्था को चौबीस घंटों के लिए स्थायी रूप से हाई अलर्ट पर रखा भी नहीं जा सकता। अगर ऐसा किया गया तो व्यवस्था के नाम पर जो कुछ बचा हुआ है, वह भी चौपट हो जाएगा। पर नागरिक निश्चित ही अपने आपको लगातार हाई अलर्ट पर रख सकते हैं। सीमा इलाके में रहने वाला आम नागरिक ऐसा ही करता है – खेती-बाड़ी करते हुए भी और त्यौहार मनाते हुए भी। सीमा क्षेत्र में आम नागरिक का व्यवहार भी सैनिकों की तरह ही रहता है। ऐसा समूचे देश में भी हो सकता है। हकीकत यह भी है कि सीमा क्षेत्र में रहने वाला नागरिक स्थान परिवर्तन के साथ ही अपने गुण भी बदल लेता है। हमें इस हकीकत के साथ जिंदा रहने की आदत डालना होगी कि नागरिक समाज को सांप्रदायिक रूप से जितना ज्यादा दूषित किया जाएगा उतना ही ज्यादा भार स्टेट के प्रतिरक्षा कवच पर पड़ने वाला है। एक समुदाय अपने आपको दूसरे के खिलाफ जितनी ज्यादा हिंसा के साथ व्यक्त करेगा, उसका प्रकटीकरण आतंकवाद की शक्ल में ही होगा।

अगर हमने अपने घर के भीतर की हिंसा या सुरक्षा के लिए स्टेट पर भरोसा करना बंद कर दिया है, तो खुले में होने वाली हिंसा से निपटने के औजार भी खुद को गढ़ने होंगे। राज्य की भागीदारी हो सकती है, पर इनीशिएटिव नागरिकों को ही लेना पड़ेगा। विस्फोटकों को शक्तिहीन करने के लिए बम निरोधक दस्तों के विशेषज्ञों की सेवाएं लेना आवश्यक है, क्यांेकि न तो यह काम सामान्य नागरिक कर सकता है और न ही उसे करना चाहिए। पर कहीं विस्फोटक पड़ा हुआ है यह सूंघने की क्षमता तो नागरिकों को ही अपने में विकसित करना होगी। स्टेट की यह जिम्मेदारी बनती है कि वह अपने नागरिकों को उनके सैन्य कर्तव्यों के लिए प्रशिक्षित करे। आतंकवादी हमले इंटेलिजेंस फेल्योर के कारण कम और नागरिक उदासीनता के कारण ज्यादा सफल होते हैं। नागरिकों की उदासीनता ज्यादा आतंकित करने वाली है।

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