१७ मई 2009
आडवाणी जी चाहें तो पुनर्विचार कर सकते हैं – श्रवण गर्ग लोकसभा के चुनावों में पड़े मतों की गिनती में भारतीय जनता पार्टी के खराब प्रदर्शन से दुखी होकर श्री लालकृष्ण आडवाणी ने विपक्ष के नेता पद से मुक्त होने का न सिर्फ इरादा जताया है, वे अपने फैसले पर कायम भी रहना चाहते हैं। वे सक्रिय राजनीति से भी अपने को मुक्त करने की इच्छा रखते हैं। अड़तीस-उनतालीस वर्ष की उम्र के राहुल गांधी की दुनियाभर को चौंका देने वाली भूमिका को देखते हुए उनसे दोगुनी उम्र के श्री आडवाणी का अगर विपक्ष और देश की राजनीति से मोहभंग हो रहा हो तो भारतीय जनता पार्टी को उनकी भावनाओं का सम्मान करना चाहिए, बशर्ते यह जानते हुए कि उनका विकल्प ढूंढऩे की कोई भी कसरत हाल के चुनावों में सरकार बनाने की पार्टी की कोशिशों से भी ज्यादा कठिन और महंगी साबित हो सकती है। श्री आडवाणी जितनी संवेदनशीलता रखने वाला और उनके जैसी सक्रिय और ईमानदार राजनीति करने वाला व्यक्ति ही भाजपा नेता (श्री आडवाणी) की इस दुविधा का अंदाजा लगा सकता है कि जिन डॉ. मनमोहन सिंह को वे अब तक का सबसे कमजोर प्रधानमंत्री होने का प्रमाणपत्र दे चुके हों, उन्हीं के सामने लोकसभा में विपक्ष के नेता के रूप में बैठने के संकोच से कैसे मुक्त हुआ जा सकेगा। प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठकर देश चलाने की इच्छा रखने वाले उन बाकी नेताओं से श्री आडवाणी के व्यक्तित्वों की तुलना निश्चित ही नहीं की जा सकती, जो लोकसभा में भी अपनी बेंचों पर भी बैठेंगे और डॉ. मनमोहन सिंह से उतनी ही गर्मजोशी से हाथ भी ऐसे मिलाते रहेंगे जैसे कि चुनाव कभी हुए ही न हों। हिंदुस्तान में सक्रिय राजनीति से अपने को मुक्त कर पाना वैसे बहुत ही कठिन काम है। मंत्रिमंडलों और राजभवनों में पड़ाव डालने के लिए कितनी-कितनी उम्र की प्रतिभाएं अपनी जेबों में लंगर डाले भटकती रहती हैं, जग जाहिर है। सबकी अंतिम इच्छा तिरंगा झंडे के साथ तोपों की सलामी लेने की ही रहती है। विपक्ष के नेता पद अथवा सक्रिय राजनीति से मुक्त होने के बाद किए जा सकने वाले व्यक्तिगत कामों की एक लंबी फेहरिस्त श्री आडवाणी ने तो आसानी से तैयार कर ली होगी, पर एक जिम्मेदार विपक्ष के नाते यूपीए सरकार से अगले पांच वर्षों तक मोर्चा लेने के लिए जिस तरह के नेतृत्व की जरूरत पड़ेगी, वैसे नामों की चर्चा भी अगर भाजपा में चल पड़ी हो तो जिन मतदाताओं ने पार्टी को लोकसभा में 116 सीटें दिलवाई हैं, वे तालियां बजाने को बेताब हैं। चिंता यह भी है कि श्री आडवाणी का सर्वमान्य विकल्प ढूंढ़ पाने का भाजपा का संकट एनडीए के लिए सूनामी साबित हो सकता है। पटना से इसके संकेत भी मिलना शुरू हो गए हैं। वामपंथियों के नेतृत्व में तीसरे मोर्चे का बने रहना अपनी जगह सही है, पर साथ ही देश में एक और स्वस्थ राजनीतिक विकल्प बनाए रखने की गरज से एनडीए को और भी मजबूत करने का सही समय भी यही है। क्योंकि जिस एनडीए की ताकत के जरिए श्री आडवाणी सत्ता में आने की उम्मीद कर रहे थे उसके साल दो साल में ही बिखर जाने की आशंकाओं पर सट्टा भी समानांतर रूप से चल रहा था। मुमकिन है कि अपने नए स्वरूप में जिस एनडीए का अब पुनर्गठन हो, वह ज्यादा स्थायी बनकर उभरे। श्री आडवाणी चाहें तो अपने फैसले पर पुनर्विचार भी कर सकते हैं।