अब 'अण्णा अगेंस्ट केजरीवाल'

[dc]अ[/dc]ण्णा हजारे फिर से व्यस्त हो गए हैं। वे अपने गांव रालेगण सिद्धी, तालुका पारनेर, जिला अहमदनगर, महाराष्ट्र में बैठकर अपने पूर्व सहयोगी अरविंद केजरीवाल की सुदूर दिल्ली में चुनावी संभावनाओं पर झाड़ू फेर रहे हैं। झाड़ू अरविंद की पार्टी का चुनाव चिह्न भी है। देश की राजधानी में विधानसभा के लिए चुनाव 4 दिसंबर को होने जा रहे हैं। भाजपा और कांग्रेस दोनों ही आम आदमी पार्टी (आप) के बढ़ते प्रभाव से चिंतित हैं और अण्णा, अरविंद को लेकर परेशान। अण्णा ने चुनावों की पूर्वसंध्या पर अपनी इस गहरी चिंता को व्यक्त कर दिल्ली के मतदाताओं तक पहुंचाना जरूरी समझा कि अरविंद केजरीवाल कथित रूप से उनके नाम का दुरुपयोग कर रहे हैं। अण्णा का शायद मानना है कि दिल्ली के मतदाता इतने भोले और विनम्र हैं कि वे उनके (अण्णा के) ‘नाम’ के बहकावे में आकर अरविंद की पार्टी को वोट दे सकते हैं। अरविंद को लेकर अण्णा के मन में और भी कई आपत्तियां हैं। अण्णा को एक ‘गांधियन’ बताया जाता है। ज्यादातर ‘गांधीवादियों’ को सबसे ज्यादा चिंता अपने नाम के उपयोग-दुरुपयोग को लेकर ही होती है और मौका मिलने पर वे अपनी पीड़ा को व्यक्त करते भी रहते हैं। ‘नाम में क्या रखा है’ की तर्ज पर गांधीजी स्वयं इसके अपवाद थे। आजादी की लड़ाई के दौरान उन्होंने इस बात पर कभी ध्यान नहीं दिया कि कांग्रेसी या कांग्रेस उनके नाम का उपयोग कर रही है या दुरुपयोग। उन्होंने जहां भी गंदगी दिखी, उस पर झाड़ू लगाने में ही अपने आपको व्यस्त रखा। गांधीजी अगर दाएं-बाएं नजर दौड़ाते रहते तो देश को आजादी मिलने में कुछ घंटों, दिनों या महीनों की देरी हो सकती थी। पर अण्णा नहीं मानते कि केजरीवाल और प्रशांत भूषण किसी तरह की आजादी या जन-लोकपाल की स्थापना के लिए चुनाव लड़ने और लड़वाने का जोखिम मोल ले रहे हैं। अत: अण्णा के लिए जरूरी हो गया था कि दिल्ली विधानसभा के लिए मतदान के पहले इस मुद्दे को उठा दिया जाए।
[dc]दि[/dc]ल्ली के रामलीला मैदान और जंतर-मंतर पर जब यूपीए सरकार के खिलाफ जन-लोकपाल की स्थापना की मांग को लेकर आंदोलन चल रहा था, तब भारतीय जनता पार्टी सहित अधिकांश विपक्षी दलों ने अपने एक कंधे पर अण्णा को और दूसरे पर अरविंद केजरीवाल को तोक रखा था। पर बाद में अरविंद ने ‘आम आदमी पार्टी’ बनाकर चुनाव लड़ने की घोषणा करके सबको ‘लोकल एनेस्थेशिया’ में डाल दिया। अत: अरविंद के खिलाफ अण्णा के ‘समयानुकूल’ विद्रोह से कांग्रेस और भाजपा दोनों को ही प्रसन्न्ता व्यक्त करना चाहिए। अरविंद केजरीवाल के मुंह को स्याही से काला करने के प्रयास को भी इसी परिप्रेक्ष्य में समझा जाना चाहिए कि दिल्ली विधानसभा के चुनावों में ‘आम आदमी पार्टी’ के रथ को रोका जाना जरूरी है। पिछले दिनों कांग्रेस पार्टी के द्वारा मांग उठाई गई थी कि ‘आम आदमी पार्टी’ को विदेशों से प्राप्त हो रहे धन की जांच की जाए। इसके बाद गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे ने एक प्रेस वार्ता में घोषणा की थी कि आम आदमी पार्टी को विदेशों से बड़े पैमाने पर धन मिलने की शिकायत मिली है और उसकी जांच कराई जा रही है। कांग्रेस और भाजपा दोनों ही देश को इस बात का कोई हिसाब देने को तैयार नहीं हैं कि उन्हें हजारों करोड़ की राशि दान में कहां से प्राप्त होती है। गृहमंत्री शिंदे उसकी कभी कोई जांच भी नहीं करवाएंगे। इतना ही नहीं, अपवाद को छोड़कर कोई भी राजनीतिक दल अपने आपको ‘सूचना का अधिकार’ कानून के दायरे में लाने को भी तैयार नहीं है। कांग्रेस भी नहीं, जो कि ‘सूचना का अधिकार’ कानून को यूपीए सरकार की एक बड़ी उपलब्धि मानकर उसका चुनावी नगाड़ा पीट रही है। अरविंद केजरीवाल के प्रति अण्णा के ताजा ‘क्षोभ’ को पढ़ने के लिए पीछे जाना जरूरी है। वह इसलिए कि अण्णा और अरविंद के बीच विवाद और विभाजन की जड़ों में ही यही वैचारिक मतभेद रहा है कि जन-लोकपाल की स्थापना के लिए आंदोलन का नेतृत्व करने वाले ‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन’ को राजनीति में पड़ना चाहिए अथवा नहीं। अण्णा इस बात के सर्वथा खिलाफ थे कि अरविंद कोई राजनीतिक दल बनाकर दिल्ली विधानसभा का चुनाव लड़ें। अण्णा ने अरविंद को ‘सत्तालोलुप’ भी निरूपित किया था। अण्णा की नाराजगी जायज भी हो सकती है। हकीकत है कि जनलोकपाल के लिए चलाया जा रहा आंदोलन अंतत: ‘फ्लॉप’ होता गया और ‘आम आदमी पार्टी’ एक सशक्त विकल्प के रूप में दिल्ली की सड़कों पर खड़ी हो गई। अण्णा की इस शिकायत में कम दम है कि केजरीवाल की ताकत के पीछे उनके नाम का च्यवनप्राश काम कर रहा है।
[dc]अ[/dc]ण्णा द्वारा 17 नवंबर को अरविंद केजरीवाल के नाम लिखी चिट्ठी वास्तव में तो दिल्ली के मतदाताओं को ही संबोधित है। चिट्ठी के जरिए अण्णा ने मतदाताओं को आगाह किया है कि ‘मेरा आपकी पार्टी से और दिल्ली विधानसभा सहित किसी भी विधानसभा चुनाव से कोई लेना-देना नहीं है। चुनाव प्रचार अभियान में न मेरा नाम लें, न ये प्रचारित करें कि मेरा किसी भी पार्टी से कोई रिश्ता है।’ अरविंद ने अण्णा को सूचित भी कर दिया कि न तो वे ऐसा कर रहे हैं और न ही आगे करेंगे। पर सच्चाई अंत तक यही बनी रहने वाली है कि अरविंद की सफाई से अण्णा का कभी भी समाधान नहीं होगा। अण्णा के इस दर्द का कोई इलाज नहीं मिलने वाला है कि अगस्त 2011 में जो ऐतिहासिक ‘अण्णा आंदोलन’ प्रकट हुआ था, अरविंद अब उसी की लहरों पर सवार होकर अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा पूरी कर रहे हैं। दिल्ली विधानसभा के चुनाव परिणाम ही साबित कर पाएंगे कि अण्णा और अरविंद में कौन ठीक है। परिणाम आने तक अरविंद और आम आदमी पार्टी के खिलाफ कुछ और जांचों और आरोपों की प्रतीक्षा की जानी चाहिए।

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