टीम अण्णा का अनशन समाप्त हो गया है। अब चुनाव तक के अगले दो-तीन सालों में ‘दूसरी आजादी” के लिए वह काम हो जाएगा जो, अण्णा के शब्दों में कहें तो, पिछले पैंसठ सालों में भी नहीं हुआ है। भीड़ देखकर अण्णा की भावनाएँ बहने लगती हैं। वे भाव विभोर हो जाते हैं और अपने अतीत के त्यागपूर्ण जीवन की लघु कथाएँ दोहराने लगते हैं। साधु-संतों की कथाओं में भी ऐसा ही होता है। अण्णा भी एक तरह का साधु जीवन ही व्यतीत कर रहे हैं। टीम अण्णा को जब पूर्व सेनाध्यक्ष वीके सिंह नारियल का पानी पिला रहे थे, तब ऐसा प्रतीत हो रहा था कि कोई अनशन नहीं बल्कि आंदोलन टूटने जा रहा है। जिस तरह से पिछले सोलह महीनों में घटनाक्रम ने करवटें बदली हैं, डर के साथ मन में शक पैदा होता है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ खड़ा किया गया आंदोलन कहीं सत्तारुढ़ गठबंधन द्वारा ही तो प्रायोजित नहीं था। और कि टीम अण्णा जाने-अनजाने उसका शिकार बन गई हो। आंदोलन का नारियल जिस तरह से फूटा है, उसका फायदा निश्चित ही कांग्रेस को मिलने वाला है। राष्ट्रपति चुनाव में गठबंधन के अपने सहयोगी घटकों और विपक्षी दलों को कमजोर साबित करने के बाद अण्णा के आंदोलन का राजनीतिक रूप परिवर्तन कांग्रेस की दूसरी बड़ी सफलता है। इसके कारण भी बहुत स्पष्ट हैं और उसमें कोई रॉकेट साइंस भी नहीं है।
अण्णा आंदोलन के दौरान आमतौर पर यही मानकर चला जा रहा था कि भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई मूलत: कांग्रेस के खिलाफ है। और यह भी कि चूँकि अण्णा का कोई राजनीतिक एजेंडा नहीं है, आगामी चुनावों में कांग्रेस के खिलाफ जनता की नाराजगी का वोट भी विपक्षी दलों को ही प्राप्त होगा। भारतीय जनता पार्टी जैसे दल भी अण्णा के आंदोलन के प्रति काफी उदार थे। अण्णा का आंदोलन देश में गैर-कांग्रेसवाद को मजबूत करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम के रूप में देखा जा रहा था।
बाबा रामदेव का टीम अण्णा के साथ कांग्रेस विरोध में जुड़ना भी वोटों के इसी ध्रुवीकरण के रूप में था। पर अब टीम अण्णा के राजनीतिक एजेंडे की घोषणा के साथ ही भारतीय जनता पार्टी के हलकों में छाई उदासी और बाबा रामदेव का किसी भी तरह की प्रतिक्रिया से इंकार करने के अर्थ कांग्रेस की प्रसन्नाता में स्पष्ट रूप से पढ़े जा सकते हैं। टीम अण्णा द्वारा चुनावों में अपने उम्मीदवार खड़े करने का सीधा प्रभाव यही होगा कि कांग्रेस-विरोधी वोट पहले के मुकाबले और ज्यादा बँट जाएँगे। कांग्रेस चाहती भी यही थी कि टीम अण्णा जंतर-मंतर के उजाले से निकलकर राजनीति की अँधी सुरंग में प्रवेश कर जाए। हुआ भी वही। इतनी नजर अवश्य रखी गई कि टीम अण्णा के एक भी सिपाही को शहीद नहीं होने दिया गया। देश की तमाम उम्मीदें नारियल का पानी पीकर राजनीतिक अनिश्चितता के ठंडे बस्ते में बंद हो गईं।
टीम अण्णा का फैसला गैर-कांग्रेसी विपक्ष की राजनीति के लिए तो धक्का साबित हुआ ही है, सिविल सोसाइटी के लोगों और स्वयंसेवी संगठनों की उस धारा को भी कमजोर करने वाला साबित होगा जो अपने छोटे-छोटे जमीनी आंदोलनों के जरिए बरसों से परिवर्तन की लड़ाई भी लड़ रहे हैं और राजनीति में प्रवेश के प्रति निष्ठापूर्वक परहेज भी निभा रहे हैं। देश को नए सिरे से आजाद कराने के लिए टीम अण्णा ने लंबे आंदोलन के बाद जो राजनीतिक रास्ता ईजाद किया है उसकी सफलता के लिए केवल आशंकाएँ ही व्यक्त की जा सकती हैं।