पेड़, पत्तियां और पगडंडियां

याद आ जाते हैं पिता अक्‍सर ही इन दिनों। भरने लगता है पानी घर में, जब-जब भी बरसात का दिखने लगता है कृशकाय शरीर उनका उलीचते हुए पानी झुक-झुककर। और तभी लगती हैं झांकने झुर्रियां पड़ी बूढ़ी होती पीठ उनकी फटी हुई कमीज़ के नीचे से। न जाने कहां चले गए वे – बिना कुछ […]

रिक्‍टर स्‍केल पर सेवन पॉइंट नाइन

और वह हाथ – जिसने पकड़ रखा था मज़बूती से, पहाड़ की तरह कंधा मेरा कुछ क्षण पहले तक – लटका हुआ था गले के पास ढीला होकर अचानक से लगा था एकबारगी मुझे। सो गया होगा, शरीर उसका थकान से लंबी यात्रा की पर हरगिज़ ही नहीं था वैसा कुछ भी, कहीं। और वह […]

क्‍यों रो रहा है हर कोई, यहां

सबसे पहले आए आगे वे लोग हिम्‍मत करके ढूंढ़ रहे थे जो आंसुओं के तूफ़ान में तिनकों-से तैर रहे सपनों सूखी हुई मछलियों टीन के कनस्‍तर में सहेजकर रखा अनाज और बीती रात चटाई के सिरहाने दबाए हुए चश्‍मे को। क्‍या बात है! थम ही नहीं रहे हैं आंसू दिख रहा है सब कुछ धुंधला-धुंधला-सा […]

बदलते हैं लोग, सरकार नहीं

ऊंची-ऊंची हवेलियों में पसरे और सोने-चांदी जड़े मखमली गद्दों पर पैदा होते थे सरकार कभी। मिलने के लिए बनाकर कतारें लंबी-लंबी खड़ी रहती थीं बस्तियां सुबह से शाम तक पेश किया जाता था नज़राना उतारी जाती थीं नज़रें सरकार की। साठ साल लंबी रात में बदला तो है बहुत कुछ – ज़मींदोज़ हो गई हैं […]

पिता और इतिहास

कभी सोच ही नहीं पाया मैं पूरी ईमानदारी से तुम्‍हारे बारे में। ड्राइंग रूम के किसी कोने में कै़द, परिचय की मोहताज किसी टूटी हुई कुर्सी या मेज़ की तरह जुड़े रहे जीवन भर तुम मेरे शरीर के साथ। और मैं अभागा कभी जी ही नहीं पाया ऊर्जा उन सांसों की जो‍ मिलती थीं मुझे […]

हो जाता पिता, कृष्‍ण का

कुरुक्षेत्र की लहू-लुहान रणभूमि में – बाहुबलियों में क्षत-विक्षत पड़े और ठोकरें खाते शवों के बीच वे जो खड़े हुए हैं – सैनिक, भींचे हुए अपनी तलवारों, गदाओं, धनुष-बाणों को रक्‍त-सिंचित। पंजों के बीच अब शामिल नहीं हैं किसी भी सेना में। न तो वे साथ हैं अब किसी सत्‍य के या कि असत्‍य के […]

नहीं समझ पाते बच्‍चे कुछ भी

मर्द जब जाते हैं मोर्चों पर बीवियां बुनती हैं पहाड़। सीखते हैं बच्‍चे लिखना – गिनती और पहाड़े पोखरों में थमे हुए बरसात के पानी पर। फिर अचानक एक दिन खटखटाने लगते हैं दरवाज़े वायरलेस संदेश। बढ़ जाती है चहल-पहल गांव में शामिल हो जाते हैं भीड़ में बच्‍चे भी लिखना छोड़ लहरों पर गिनतियां। […]

जानते हैं पहाड़

पहाड़ नहीं जाते यात्राओं पर कहीं लौटते भी नहीं कहीं से वे वापस। करते हैं केवल प्रतीक्षा। खड़े-खड़े और छोड़े बग़ैर ज़मीन सालों-साल सदियों तक लौटने की गड़रियों के घर वापस। पर जानते हैं पहाड़ – गया हुआ सब कुछ वापस नहीं लौटता कभी जैसे चट्टानों के सीने चीरकर निकली कोई नदी या कि ससुराल […]

यात्राओं में

यात्राओं में ऐसा तो होता ही है। बहुत सारे लोग जो साथ थे कल शाम तक आज नहीं हैं पास हवा भी तो बदल गई है आसपास की जगहों के बदलने के साथ-साथ लोग भी बदल जाते हैं – और साथ ही हवा, पानी और ज़मीन भी। केवल चाहने भर से ही नहीं हो जाते […]

साठ साल पूरे करने पर

आसान नहीं है सब कुछ कहानी-किस्‍से गढ़ लेने की तरह। घुटनों के बल चलकर खड़े होने की कोशिशों और साठ वसंतों को पूरे कर लेने के बीच की दूरी को नहीं नापा जा सकता किसी फीते से। पिता की पीठ पर पैर रखकर कंधों पर सवारी करने के सुख और नुकीली चट्टानों को लांघते हुए […]