हे पिता, केदारनाथ!

होने लगा है वक्त अब हमारे
घर लौटने का प्रभु
दीजिए इजाजत हमें, हे केदारनाथ!
बढ़ रहा है अंधेरा आंखों के आसपास,
लगने लगा है डर
अपनी ही उपस्थिति से हमें।
तुम तो हो पिता, शिव हो तुम
अंतरयामी,
जानते हो पीड़ाएं सबकी।
करना है ढेर सारे काम हमें
लौटकर गांव अपने।
आने वाले हैं घर देखने
गुड़िया को, रिश्ते वाले!
बहुत जरूरी है लौटना
बूढ़े दादाजी कर रहे हैं प्रतीक्षा
बनवाना है नया चश्मा उनका।
पर बंद क्यों हो रहे हैं
रास्ते सारे एक-एक करके!
तुम्हारी आरती और
शंखध्वनियों से सर्वथा अलग
ये डरावनी आवाजें कैसी हैं
जो तूफानी शिलाएं बनकर
दे रही हैं चुनौती तुम्हारे नंदी को?
तुम्हारी आराधना में उठे सैकडों हाथ
पलक झपकते ही हो रहे हैं अदृश्य कहां?
बताओ, हे केदारनाथ!
कहां गए हमारे वे सारे पुण्य
जो बांधकर लाए थे हम तुम्हारी शरण में?
कौन लील गया उन पगडंडियों और
रास्तों को
चलकर जिन पर पहुंचे थे हम तुम्हारे
दरबार में?
किससे पूछें हम उत्तर
अपनी जिज्ञासाओं के,
अपने होने-न होने को
लेकर भयभीत कर रही आशंकाओं के?
कौन देगा जवाब हमें?
कैसे देंगे उत्तर अब हम,
घर लौटकर उन सवालों के
जो रह जाने वाले हैं अनुत्तरित
हमेशा-हमेशा के लिए?
हम लौटना चाहते हैं प्रभु,
इजाजत दे दो हमें।
देखो, वह जो जल हम लाए थे
तुम्हारा अभिषेक करने के लिए
अब समेट रहा है हमें ही अपनी बांहों में।
हमें आज्ञा दे दो प्रभु
हम लौटना चाहते हैं घर अब!

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