हिंसक भीड़ में बदलता असुरक्षित नागरिक

चार-वर्षीय अबोध बालिका शिवानी के साथ दुराचार के बाद उसकी नृशंस हत्या का दुस्साहस करने वाले आरोपी युवकों और पुलिस के साथ इंदौर के जिला कोर्ट परिसर में गुस्साई भीड़ द्वारा जो सुलूक किया गया उसका खतरनाक और चिंतित करने वाला संकेत यह है कि आए दिन के अपराधों और सुरक्षा तंत्र की नाकामियों से अपने आपको लगातार असुरक्षित और त्रस्त महसूस करती जनता अब अदालतों के परिसरों में भी कानून व्यवस्था को अपने हाथों में लेने को उतारू होना चाह रही है। स्थापित व्यवस्था के मार्फत अपराधियों को उचित दंड मिलने के प्रति जनता का विश्वास खत्म होता जा रहा है।
जनता के स्तर पर इस तरह की अराजकता की अभिव्यक्ति कि पुलिस खुद के साथ ही अपनी अभिरक्षा में लाए गए आरोपियों को बचाने में असहाय पाने लगे इस बात की मुनादी है कि शहर का नियंत्रण अब उसके व्यवस्थापकों के काबू से बाहर हो रहा है। यह एक तरह की कबिलाई संस्कृति की वापसी है कि भीड़ को ही तय करने दिया जाए कि अब आरोपियों को वही दंड देगी। शिवानी हत्याकांड के आरोपियों को अदालत परिसर से सुरक्षित बाहर निकाल पाने में पुलिस के जवान अगर सफल नहीं होते और गुस्से से उफनती भीड़ का बस चल जाता तो परिणामों की कल्पना करके हम सिहर सकते हैं। पर चिंता इस एक घटना के साथ ही खत्म नहीं होती। शहर में अपराधों और अपराधियों की संख्या जिस तादात में लगातार बढ़ती जा रही है वह नागरिकों के धैर्य को बोथरा करने के साथ ही व्यवस्थापकों को संवेदन शून्य और सरकार को ढीठ ही साबित करने के लिए काफी है। अपराधों को लेकर सुनवाई और निराकरण अब वैसे ही होने लगा है जैसे कि सरकारी अस्पतालों में मरीजों का इलाज होता है। लोग अपने जरूरी इलाज के लिए तो फिर भी प्रायवेट अस्पतालों में जा सकते हैं पर अपनी हिफाजत के लिए उन्हें किसकी शरण लेना चाहिए अभी बताया नहीं गया है। शायद यही कारण है कि अपराधियों को सजा देने का काम अपने हाथ में लेने की हिम्मत दिखाना नागरिकों की भीड़ ने शुरू कर दिया है। जरूरत इस बात की है कि भीड़ को भरोसे में लेकर यह आश्वासन दिया जाए कि एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में अपराधियों को सजा या फाँसी तालिबानी तरीकों से नहीं दी जा सकती। बढ़ते अपराधों को लेकर जनता के एक वर्ग द्वारा व्यक्त हो रही हिंसक प्रतिक्रिया का एक संदेश शायद यह भी है कि नागरिक समाज के स्तर पर शहर पूरी तरह से नेतृत्वविहीन हो गया है। राजनीतिक दलों और निर्वाचित प्रतिनिधियों के प्रति जनता का सम्मान और विश्वास आज उतना ही बचा है जितना कि पुलिस और सामान्य प्रशासन को लेकर है। नागरिक जैसे-जैसे ज्यादा असुरक्षित होता हुआ भीड़ में बदलता जाएगा, चुने गए प्रतिनिधियों के साथ भी उसकी दूरी उतनी ही बढ़ती जाएगी। भीड़ की हिंसक अभिव्यक्ति के दौरान किसी भी तरह के सार्थक राजनीतिक नेतृत्व की अनुपस्थिति सभ्य नागरिकों के मन में संदेह पैदा करती है कि कहीं शहर ऐसे किसी संगठित गिरोह की गिरोह की गिरफ्त में तो नहीं पहुँच गया है जिसके सदस्यों की सूची में वे सब नाम भी शामिल हैं जिनकी गिनती नायकों और कर्णधारों में की जाती है। आरोपियों को भीड़ के हाथों में सौंपने की माँग करते हुए थाने को घेरने अथवा पुलिस अभिरक्षा को चुनौती देने की वृत्ति किसी बड़ी और चिंतित करने वाली बीमारी का लक्षण है जिसे कि गंभीरता से लिए जाने की जरूरत है। वरना खतरा यह है कि अपराधों पर किसी तरह का नियंत्रण नहीं कायम किए जाने की स्थिति में लोकतंत्र एक हिंसक भीड़तंत्र में तब्दील होकर समूची कानून-व्यवस्था को अपना बंधक बना लेगा।

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