३ जून २०११
ऐसा मानना हड़बड़ी में कोई कठिन आसन लगाने जैसा होगा कि बाबा और सरकार के बीच बातचीत पूरी तरह से विफल हो गई है। बाबा और सरकार के बीच अगर पांच सितारा माहौल में पांच घंटे लंबी बातचीत हुई है तो निश्चित ही इसलिए नहीं कि उसे असफल होने दिया जाए। आमरण अनशन की चेतावनी के जरिए अगर बाबा की कीमती जान और देश की शांति दांव पर लगी है तो सरकार के मंत्रियों की नौकरी भी काफी महत्वपूर्ण हो गई है। बाबा ने अपने आंदोलन को लेकर जिस तरह का माहौल दिल्ली के रामलीला मैदान और देश में खड़ा कर दिया है, उसे देखते हुए उनका अनशन पर बैठना जरूरी भी हो गया था और सरकार के मंत्रियों के लिए इस तरह की हवा बनाए रखना भी कि समझौते को लेकर बातचीत आगे भी जारी रहेगी। बातचीत अगर पांच घंटे चल सकती है तो और पंद्रह घंटे भी हो सकती है। और फिर अन्ना हजारे द्वारा रामदेव को दी गई सलाह भी समूचे घटनाक्रम को प्रभावित करने के लिए काफी थी कि योगाचार्य को ‘धोखेबाज सरकार’ के बहकावे में नहीं आना चाहिए। बातचीत के बाद जो सामने आया है वह इसलिए अनपेक्षित नहीं कि बाबा ने हाल-फिलहाल वही किया है जो आंदोलन की साख को कायम रखने के लिए जरूरी था। आजाद भारत में इस तरह के ज्यादा उदाहरण नहीं मिल पाएंगे कि किसी चुनी हुई सरकार ने किसी आंदोलनकारी नेता के समक्ष इस तरह सार्वजनिक रूप से शीर्षासन किया हो। मनमोहन सिंह मंत्रिमंडल के सदस्यों से बातचीत के बाद बाबा ने सरकार और सिब्बल की जिस तरह से तारीफ की और रामलीला मैदान में आपसी सहमति के मुद्दों का जो खुलासा किया उससे इस बात का अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं कि दोनों पक्षों के बीच व्यापक मुद्दों पर सहमति बन चुकी है। बाबा ने सरकार से बातचीत का जो ब्यौरा पेश किया है उससे एक बात तो स्पष्ट है कि अन्ना हजारे और उनके सहयोगियों के लिए शनिवार को रामलीला मैदान के अनशन में भाग लेेने के लिए ज्यादा कुछ नहीं बचा है। भ्रष्टाचार की समाप्ति के मसले पर बाबा और सरकार के बीच जो सहमति बनती दिख रही है वह लोकपाल की स्थापना की मांग को लेकर सिविल सोसाइटी के आंदोलन से सर्वथा भिन्न है। अत: यह भी माना जा सकता है कि सिविल सोसाइटी के आंदोलन से बाबा रामदेव को अलग करने में सरकार को सफलता मिल गई है। सिविल सोसाइटी में होने वाली फाड़ अपनी जगह, भाजपा सहित अन्य विपक्षी दलों और संघ जैसे संगठनों के लिए भी बाबा के आंदोलन से खुश होने के लिए शायद कुछ नहीं बच पाया है। वे फिर भी उन्हें समर्थन जारी रखते हैं तो उसे उनकी राजनीतिक मजबूरी करार दिया जा सकता है। बाबा ने तो अपनी ओर से इशारों-इशारों में सभी को सबकुछ स्पष्ट कर दिया है और यह संकेत भी दे दिया है कि सरकार के प्रति उनका रवैया क्या रहने वाला है। सिविल सोसाइटी की मांगों को केंद्र सरकार ने राज्यों और विपक्षी दलों के पास उनकी राय जानने के लिए भेजा है। यह देखना बाकी रहेगा कि अब बाबा की मांगों को लेकर सरकार का क्या रुख बनता है। दिग्विजय सिंह का अगला हमला बाबा के खिलाफ किस तरह का रहता है उससे भी बातचीत की सफलता-असफलता का संकेत मिल जाएगा। पर धुंध साफ होने तक तो जनता को ‘थोड़ा इंतजार’ और बाबा-भक्तों को ‘थोड़ा अनशन’ करना ही पड़ेगा।