और वह हाथ –
जिसने पकड़ रखा था
मज़बूती से, पहाड़ की तरह
कंधा मेरा
कुछ क्षण पहले तक –
लटका हुआ था गले के पास
ढीला होकर अचानक से
लगा था एकबारगी मुझे।
सो गया होगा, शरीर उसका
थकान से लंबी यात्रा की
पर हरगिज़ ही नहीं था
वैसा कुछ भी, कहीं।
और वह बच्चा जिसे
दी थी टॉफ़ी कुछ ही मिनटों पहले
बैठी थी वैसी ही चिपकी हुई
उसके दूध के दांतों और
लाल सुर्ख जीभ के बीच
केवल एक घूंट की प्रतीक्षा में।
और नाव बनी चमकीली
पन्नी उसकी
सिसक रही थी मुलायम मुट्ठियों के बीच।
प्लास्टिक की वह गुडि़या
मिली थी भेंट में जो उसे।
पिछले जन्मदिन पर अपने
गुमसुम और उदास बैठी थी
किन्हीं नन्हें हाथों की प्रतीक्षा में।
और कहीं दूर किसी आराधना घर में
सुनाई दे रही है सिसकियां
अंतरमन से अंतरयामी की।