यह अनुभव करने के लिए कि
छोटी है बहुत दुनिया और
आदमी बौना भी दिख सकता है
ज़रूरी है छूना ऊंचाइयों को।
मैं जानता हूं यह भी कि –
सब कुछ उतना आसान नहीं
जितना आता है नज़र
काग़ज़ की ख़ूबसूरत लकीरों में।
कंटीली झाडि़यां,
पथरीले रास्ते
कभी न ख़त्म होने वाली प्यास
और एक अंतहीन यात्रा।
और सच तो यह भी है कि
ख़त्म होती नहीं, ऊंचाइयां कभी।
हर एक पहाड़, दूसरे से
होता जाता है लगातार ऊंचा।
पर पहाड़ों पर चढ़ना ज़रूरी भी है।
अपनी यात्रा के हरेक पड़ाव पर पहुंचकर
ज़रूर देखना तुम नीचे की ओर।
जैसे-जैसे बढ़ोगी तुम ऊपर की ओर,
वह सब जो छूटता जाएगा नीचे की ओर,
नज़र आएगा – बौना, और बौना, और बौना।
पर अपने कमज़ोर पैरों पर खड़ा हुआ मैं
तुम्हें ताकता ही रहूंगा।
उस क्षण के बहुत बाद तक भी।
जब तुम पहुंचकर, अपनी ऊंचाइयों पर
नहीं हो जाओगी ओझल
मेरी नज़रों से।
और बस, लगेगा उसी क्षण मुझे
आसपास ही हो कहीं तुम मेरे
कंधों पर मेरे चढ़ी हुई
और देख रही हो दुनिया को।
मुझसे कहीं ज़्यादा दूरी तक
ठीक वैसी ही, जैसी कि –
तुम थीं बीस साल पहले!
एक नन्हीं-सी बालिका, कृति।