बेटियों के भरोसे को 'न्याय' का सवाल

[dc]वे[/dc] तमाम लोग जो आरुषि हत्या प्रकरण में तलवार दंपति के लिए मौत की सजा की मांग कर रहे थे, उन्हें विशेष अदालत के फैसले से निश्चित ही निराशा हुई होगी कि राजेश और नूपुर को केवल उम्रकैद ही मिली। पर आरुषि की हत्या के पीछे के ‘सत्य’ को अंतिम रूप से उजागर होने देने के लिए उम्रकैद को भी संतोषजनक ठहराया जा सकता है। अन्यथा मौत की सजा एक ऐसे जघन्य अपराध का क्लाईमेक्स हो जाती, जिसके असली अपराधियों की सूरतों को लेकर दुनियाभर के अभिभावकों के मन में घटना के पांच साल बाद भी संशय की स्थिति ज्यों की त्यों बनी हुई है, और साथ ही बहस के संदर्भ भी बदल जाते। चूंकि उम्रकैद की सजा परिस्थितिजन्य साक्ष्यों के आधार पर सुनाई गई है, इसीलिए इसके ‘कम’ या ‘अधिक’ होने को लेकर चल रही मीडिया की बहस में दोनों तरह के पक्षों को भाग लेने और गले में अटकने वाले तर्क पेश करने की सुविधा मिल गई है।
इन सब बहसों के बीच जो असली सवाल गुम हो रहा है, वह यह है कि 14-वर्षीय मासूम आरुषि की हत्या के पीछे माता-पिता के अलावा और किसका आक्रोश हो सकता था और उसके क्या कारण हो सकते थे? और इस सवाल की तह में जाने का काम क्या केवल पुलिस, सीबीआई और अदालत पर छोड़ दिया जाना चाहिए या आसपास उपस्थित परिस्थितियों के आधार पर सामान्य अभिभावक भी अनुमान लगा सकते हैं? गाजियाबाद की अदालत अगर सोमवार को दिए अपने फैसले में तलवार दंपति को निर्दोष करार देकर आजाद कर देती तो जो बहस वर्तमान में चल रही है, उसकी धार ही बदल जाती और जघन्य हत्याकांड की वैसे ही भ्रूण हत्या हो जाती, जैसी कि तीन साल पहले होने वाली थी, जब सीबीआई ने सबूतों के अभाव में मामले को बंद करने की बात कही थी।
[dc]स[/dc]मय का प्रकोप है कि प्रकरण कुछ इस तरह का बन गया है कि तलवार दंपती को ‘मिली सजा’ और ‘मिल सकने वाली सजा या रिहाई’ के बीच ज्यादा फर्क नहीं रह गया है। आरुषि जैसी बालिकाओं का एक बड़ा समूह एक ऐसी कबीलाई संस्कृति की तलवार की धार पर चल रहा है, जिसमें भ्रूण हत्याओं, गोत्र में विवाह के खिलाफ फतवों और ‘इज्जत के लिए’ मौत की सजा (ऑनर किलिंग) को गलत नहीं माना जाता। हत्या का अपराध करने वाले को इसमें कोई पश्चाताप भी नहीं होता। इस तरह की तमाम हत्याएं करने वालों के खिलाफ मीडिया में उनके नाम लेकर कभी बहसें भी नहीं चलतीं। चूंकि सत्ता की राजनीति करने वालों को खाप की बैसाखियों की हमेशा जरूरत होती है, फतवों और ‘ऑनर किलिंग’ का शिकार बनने वाली ‘आरुषियों’ के सही और सभी हत्यारों की न तो कभी पहचान हो पाती है और न ही उन्हें कभी समुचित सजा मिल पाती है।
[dc]दु[/dc]र्भाग्यपूर्ण है कि बहस आरुषि की स्मृति को ‘न्याय’ मिलने से ज्यादा इस बात पर टिकती जा रही है कि तलवार दंपति के साथ ‘न्याय’ हो रहा है कि ‘अन्याय।’ आरुषि से सहानुभूति रखने वालों के समूह को पीड़िता के ‘निर्दोष माता-पिता’ के साथ भी सहानुभूति रखने वालों की भीड़ या ‘अपराधी’ राजेश-नूपुर तलवार के लिए मौत की सजा मांगने वालों की जमात में विभाजित किया जा रहा है। जाने-अनजाने, बहसों को सुनने वालों को ‘भ्रमित’ किया जा रहा है कि वे आरुषि के लिए लड़ें या कि राजेश-नूपुर का साथ दें। यही कारण है कि जब अदालत राजेश-नूपुर को सजा सुनाती है तो तलवार दंपति के प्रति सहानुभूति रखने वालों का समूह फैसले को ‘मीडिया ट्रायल’ का परिणाम बताता है, परिस्थितिजन्य साक्ष्यों के आधार पर स्वीकार किया जा सकने वाला निर्णय नहीं। अत: बहुत मुमकिन है कि आरुषि के लिए न्याय की लड़ाई इसी मुकाम से अब आगे बढ़े कि राजेश और नूपुर को मिली उम्रकैद की सजा को लेकर उच्च न्यायालय में चुनौती दी जाएगी और नृशंस हत्या से जुड़े पन्ने एक बार फिर से खुलेंगे। तलवार दंपति द्वारा दावा किया जा रहा है कि : ‘जो अपराध हमने किया ही नहीं, उसके लिए दोषी ठहराए जाने से हम बहुत निराश, आहत और दु:खी हैं। हम अपने को हारा हुआ नहीं मानते हैं। हम न्याय की लड़ाई जारी रखेंगे।’ कि दुनियाभर की बेटियां अपने से जुड़े हर तरह के ‘आचरण’ के प्रति अपने मां-बाप की अंदरूनी ‘ईमानदारी’ पर भरोसा रखें, इसके लिए तलवार दंपति के लिए भी अब पूरी तरह निष्कलंक साबित होकर ही कैद से बाहर निकलना जरूरी हो गया है। अदालत द्वारा दिए गए 210 पृष्ठीय फैसले के इस अंश को ध्यान में रखा जाना हमेशा जरूरी रहेगा कि : ‘यह सर्वविदित है कि हत्या की अनेक वारदातें किसी ज्ञात या प्रमुख कारण के बिना घटित होती हैं। यदि अभियोजन पक्ष आरोपी की मनोस्थिति को साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत करने में नाकाम रहे तो इसका यह मतलब नहीं कि उसकी ऐसी कोई मनोदशा थी ही नहीं।’

Leave a comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *