देश में इन दिनों बहस चल रही है कि विश्व कप में हारकर लौटी टीम के साथ किस तरह का सुलूक किया जाए। इस सवाल को लेकर खुला मतदान चल रहा है कि राहुल द्रविड़ को भारतीय क्रिकेट टीम का कप्तान बनाए रखा जाए या नहीं, ग्रेग चैपल की कोच के रूप में सेवाएं हमें जारी रखना चाहिए या नहीं और कि सचिन तेंडुलकर को क्रिकेट से संन्यास ले लेना चाहिए या नहीं। हॉकी के विश्व मुकाबलों में पिटकर लौटने वाली टीमों को लेकर ऐसी चिंताएं कभी जाहिर नहीं की गईं। सही पूछा जाए तो हमें पता भी नहीं होगा कि हमारी हॉकी टीम के खिलाड़ी कौन हैं और उनका कोच किस नस्ल का है। क्रिकेट में टीम को लेकर जैसा तमाशा इन दिनों चल रहा है वैसा केवल राजनीति में चलता है। जीतने वाले नेताओं की जय-जयकार होती है और हारने वालों से इस्तीफे मांगकर उन्हें घर बैठाया जाता है। या तो ‘क्रिकेट की राजनीति’ चलती है या फिर ‘राजनीति का क्रिकेट’। बीच की कोई स्थिति नहीं है।
देश का सारा ध्यान इस समय क्रिकेट के खिलाड़ियों के वर्ल्ड कप में ‘पूअर परफामेर्ंस’ पर केंद्रित है। राजनीति के खिलाड़ियों और उनके ‘परफामेर्ंस’ की समूची चिंता तो शेयर बाजार के हवाले की जा चुकी है। कोई पूछने को तैयार नहीं कि डॉ. मनमोहन सिंह की कप्तानी में देश आए दिन जिस विश्व प्रतियोगिता में लगा रहता है उसके नतीजे किस तरह के मिल रहे हैं। पी. चिदम्बरम द्वारा संसद में पेश किए गए बजट को बीते हुए अभी एक महीना ही हुआ है पर उसे पूरी तरह से भुला दिया गया है। उत्तरप्रदेश में चुनाव होने जा रहे हैं और उसके नतीजे देश की राजनीति की दशा और दिशा तय करने वाले हैं पर देश क्रिकेट की टीम के भविष्य को लेकर सिरहाने लगे तकिए गीले करने में व्यस्त है। अखबारों के पन्नों पर सार्क देशों के सम्मेलन के समाचार व फोटो नहीं बल्कि केरल के कोवलम बीच पर राहुल द्रविड़ के तौलिया लिपटे हुए चित्र प्रकाशित हो रहे हैं।
भारतीय क्रिकेट भी शायद किसी बच्चे की तरह खेलते-खेलते गहरे बोरवेल में गिर गया है और समूचा देश उसे सुरक्षित बाहर निकालने में जुटा हुआ है। दुनिया के भ्रष्ट देशों की सूची में भारत किस पायदान पर है इसको लेकर हम अपने आपको कभी भी दुखी और अपमानित नहीं महसूस करते, जितना दुख और अपमान इस बात को लेकर महसूस कर रहे हैं कि हम विश्व कप क्रिकेट के मुकाबलों से इस तरह खाली हाथ कैसे लौट आए! हमारी चिंताओं में इस बात का शुमार नहीं है कि बांग्लादेश के साथ लगी भारत की सीमा पर चल रही गतिविधियों के कारण किस तरह से हमारे उत्तर-पूर्वी राज्यों की शांति भंग हो रही है, हम चिंतित इस सवाल को लेकर हैं कि अगले महीने ढाका दौरे पर जाने वाली भारतीय क्रिकेट टीम कैसी होगी, उसका नेतृत्व कौन करेगा और अगर वहां भी हमारी वर्ल्ड कप जैसी ही पिटाई हुई तो हम किससे और क्या जवाब मांगेंगे।
क्रिकेट को लेकर मचाई जा रही अराजकता को किसी व्यक्ति या समूह के मत्थे मढ़कर निश्ंिचत नहीं हुआ जा सकता। न ही यह कहकर पल्ला झाड़ा जा सकता है कि क्रिकेट के नशे को बढ़ावा किसी सोची-समझी साजिश के तहत दिया जा रहा है, जिसका कि उद्देश्य यह है कि आम जनता का ध्यान देश की मूलभूत समस्याओं से हटाया जा सके। ऐसा निश्चित ही हो भी रहा है। हजारों तरह की बीमारियों और लाखों किस्म की समस्याओं में उलझे होने के बावजूद हम कीड़ों-मकोड़ों की तरह रेंगते रहने के लिए तैयार हैं बशर्ते अपने नशे की पुड़िया हमें जरूरत के वक्त मिल सके।
इस तर्क में काफी दम है कि क्रिकेट का खेल बड़े-बड़े मैदानों और स्टेडियमों से निकलकर गली-मोहल्लों में पहुंच गया है और अब उसे वापस घरों में नहीं पहुंचाया जा सकता। इस बात में भी कम दम है कि सचिन तेंडुलकर अपना बल्ला टांग देंगे या द्रविड़ कप्तानी की दावेदारी से हट जाएंगे। सही बात तो यह है कि ये अगर ऐसा करना चाहें तो भी वे ताकतें ऐसा नहीं होने देंगी जो देश में क्रिकेट के खेल को इतने ही ग्लैमर के साथ चलाए रखना चाहती हैं। विचार किया जाए कि बड़ी-बड़ी कंपनियों के विज्ञापनों में चमकने वाली हस्तियों में आज शुमार किनका है? या तो गिनती की उन फिल्मी हस्तियों का जिनके कि दम पर बालीवुड में करोड़ों-अरबों की फिल्में बनती हैं या फिर क्रिकेट के उन खिलाड़ियों का जो विश्व कप से मुंह लटकाए वापस लौटे हैं। क्रिकेट के परिदृश्य से अगर इन हस्तियों को अगर आम जनता के मतदान के जरिए ही गायब करना आसान हो गया तो फिर ढेरों की संख्या में अलग-अलग टीवी चैनलों पर दिखाए जाने वाले विज्ञापनों में कौन नजर आएगा?
दिग्गज खिलाड़ियों को आम जनता के ही चाहने भर से अगर क्रिकेट टीम से बाहर कर दिया गया तो उस सट्टा बाजार का क्या होगा जिसमें अरबों की संपत्ति का जुआ खेला जाता है और एक संगठित माफिया जिसका किसी तीसरे देश में बैठकर संचालन करता है। उस भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड का भी वजन क्या रह जाएगा जो आज अरबों रुपए की संपत्ति का मालिक बना बैठा है? और अंत में उन राजनेताओं का क्या होगा जो क्रिकेट के पिच पर वोटों की राजनीति के बड़े-बड़े स्कोर खड़े कर रहे हैं।
क्रिकेट के बॉक्स आफिस पर फिल्मी दुनिया की तरह पुरानी ब्लैकएंड व्हाइट सफल फिल्मों के रंगीन प्रिंट जारी करके हिट नहीं हुआ जा सकता। इसलिए जो सितारे आज डिमांड में हैं, टीमें भी उन्हीं को लेकर बनाई जाएंगी। अत: इस मुगालते को दूर करना जरूरी है कि कोई चयन समिति होती है जो श्रेष्ठ खिलाड़ियों का चुनाव करती है। हमारी क्रिकेट टीम की असली चयन समिति देश का विस्तृत होता बाजार है और वही तय करता है कि मैच किसे खेलना है और यह भी कि ओपनिंग बैट्समैन कौन होंगे? सही तो यह भी है कि हमारी याददाश्त बड़ी कमजोर है। हर नई एक जीत पुरानी कई हारों को भुला देती है। ऐसा हमने युद्धों में और राजनीति में होते हुए देखा भी है।