[dc]मो[/dc]दी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी या राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) की सुनामी विजय को लेकर अलग-अलग अनुमान लगाए जा रहे हैं। एक अनुमान यह भी है कि जीत का ज्यादातर श्रेय भावी प्रधानमंत्री की ‘मार्केटिंग व मीडिया स्ट्रेटेजी’ और कॉर्पोरेट्स द्वारा खर्च की गई हजारों करोड़ की धनराशि को दिया जाना चाहिए। इस तरह के अनुमानों में कुछ तथ्य है या केवल यही तथ्य है, यह शोध का विषय है। सबकुछ अगर मार्केटिंग और मीडिया स्ट्रेटेजी और पैसों का ही कमाल था तो क्या यह ‘विकल्प’ कांग्रेस को उपलब्ध नहीं था? अगर मार्केटिंग रणनीति और धन की ही बात थी तो क्या प्रधानमंत्री के पद की आकांक्षा रखने वाले भाजपा के अन्य नेता उसका इस्तेमाल करके ऐसा ही चमत्कार कर सकते थे? अलावा इसके कि मोदी ने एक ‘मजदूर’ की तरह चुनाव प्रचार में रात-दिन एक कर दिया, प्रचार-प्रसार के काम को अत्याधुनिक सुविधाओं से सज्जित ‘प्रोफेशनल्स’ की टीम के हवाले कर दिया गया और देश-विदेश के कॉर्पोरेट्स ने मोदी के पक्ष में संसाधनों के ढेर लगा दिए, ऐसा कुछ और भी होना चाहिए, जिसने मोदी के पक्ष में काम किया है और कांग्रेस उसे समझ नहीं पाई।
[dc]मो[/dc]दी की जीत को समझने के लिए चुनाव परिणामों को पांच परिदृश्यों में बांटना पड़ेगा। पहला परिदृश्य वे राज्य हैं, जहां वर्तमान में पूरी तरह से भाजपा की सरकारें हैं। ये हैं : गुजरात, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और गोवा। इन राज्यों में लोकसभा की कुल 93 सीटें हैं। भाजपा को इनमें से 90 सीटें मिली हैं। पिछले चुनाव में उसे 46 सीटें ही इन राज्यों से मिली थीं। यानी 44 सीटों का इजाफा हुआ। इसका पूरा श्रेय राज्य सरकारों और प्रदेश संगठनों को दिया जा सकता है। गुजरात में तो पूरा चुनाव मोदी की अनुपस्थिति में ही लड़ा गया और 26 में से 26 सीटें मिलीं, जिनमें बड़ौदा की सीट भी है, जो रिकॉर्ड पांच लाख सत्तर हजार मतों से जीती गई। राजस्थान ने भी सभी 25 सीटें मोदी की झोली में डाल दीं।
[dc]मो[/dc]दी की जीत का दूसरा परिदृश्य है, वे राज्य जहां वर्तमान में कांग्रेस की सरकारें हैं या कांग्रेस जहां सहयोगी है या कभी सत्ता में रही है। ये राज्य हैं : महाराष्ट्र, कर्नाटक, असम, हरियाणा, उत्तराखंड, आंध्र प्रदेश, हिमाचल प्रदेश और झारखंड। इन राज्यों में सीटों की संख्या 165 है। इन राज्यों में केंद्र के खिलाफ वैसी ही जबर्दस्त एंटी-इंकंबेंसी थी, जैसी कि हाल के विधानसभा चुनावों में अशोक गेहलोत व शीला दीक्षित के खिलाफ राजस्थान व नई दिल्ली में व्यक्त हुई थी। इन राज्यों में एंटी-इंकंबेंसी के चलते 2009 की केवल 43 सीटों के मुकाबले 78 सीटें मोदी लहर के कारण केवल भाजपा को मिलीं। सहयोगी दलों – शिव सेना व तेलुगुदेशम – की सीटें अलग हैं। इन राज्यों में भी मोदी को ‘स्ट्रेटेजिकली’ ज्यादा जोर नहीं लगाना पड़ा। केंद्र के खिलाफ एंटी-इंकंबेंसी ने ही मोदी के पक्ष में अपना काम कर दिया। हालांकि भाजपा-शासित राज्यों के मुकाबले उपलब्धि कमजोर रही। (आश्चर्यजनक रूप से आंध्र में मोदी को विशेष समर्थन नहीं मिल पाया। भाजपा को 42 में से 3 सीटें ही मिलीं।)
[dc]ती[/dc]सरा परिदृश्य दिल्ली का है, जहां ‘आम आदमी पार्टी’ के खिलाफ एंटी-इंकंबेंसी ने काम किया। कांग्रेस के खिलाफ तो यह एंटी-इंकंबेंसी पिछले विधानसभा चुनावों के समय से ही थी। पिछले लोकसभा चुनाव में यहां की सातों सीटें कांग्रेस के पास थीं। इस बार सातों सीटें भाजपा को मिलीं। केजरीवाल की पार्टी का भी कांग्रेस के साथ-साथ सफाया हो गया।
[dc]चौ[/dc]था परिदृश्य बिहार का है, जहां पहले नीतीश कुमार और भाजपा की मिली-जुली सरकार थी। बाद में मोदी के मुद्दे पर नीतीश भाजपा से अलग हो गए। नीतीश ने बिना यह महसूस किए कि बिहार में उनके खिलाफ एंटी-इंकंबेंसी बढ़ रही है और भाजपा, जद(यू) से ज्यादा प्रभावशाली है, नरेंद्र मोदी पर अपने हमले जारी रखे। पिछले चुनाव में वहां की 40 सीटों में से भाजपा को 12 सीटें मिली थीं। इस बार अकेले भाजपा को 22 सीटें मिलीं। दिल्ली व बिहार को मिलाकर मोदी को 17 सीटें ज्यादा मिलीं। यानी दोनों स्थानों की 47 सीटों में से 29 सीटें मोदी लहर के नाम हुईं। बिहार में सहयोगी दलों की सीटें अलग हैं। नीतीश को केवल दो सीटें मिलीं और अब वहां तूफान उठ रहा है।
[dc]मो[/dc]दी की जीत का सबसे अहम हिस्सा उत्तर प्रदेश है, जहां 80 सीटें हैं। पिछली बार यहां से भाजपा को केवल 10 सीटें मिली थीं। इस बार वहां से 71 सीटें मिलीं। अमित शाह के नेतृत्व में भाजपा ने अपनी पूरी ताकत यहीं झोंकी और प्रदेश के पुराने पार्टी नेतृत्व को अलग बैठा दिया। उत्तर प्रदेश में जो चमत्कार हुआ, वास्तव में उसी ने मोदी को हीरो बनाया। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस अमेठी और रायबरेली तक सिमटकर रह गई। मोदी जानते थे कि देश जीतने के लिए उत्तर प्रदेश जीतना जरूरी है। वे यह भी जानते थे कि उत्तर प्रदेश में अखिलेश सरकार के खिलाफ जबरदस्त एंटी-इंकंबेंसी है। यानी उप्र में भाजपा डबल एंटी-इंकंबेंसी का लाभ लेना चाहती थी – केंद्र में कांग्रेस के खिलाफ व प्रदेश में अखिलेश यादव के खिलाफ। मोदी ने अपने सबसे विश्वस्त सहयोगी अमित शाह को इसीलिए काम पर लगाया। अमित शाह जानते थे कि आजम खान और इमरान मसूद जैसे मुस्लिम कट्टरपंथी नेता उनका काम और आसान कर देंगे और मुलायम सिंह हालात संभाल नहीं पाएंगे। हुआ भी वही। अखिलेश ने समाजवादी पार्टी को चारा बनाकर आजम खान की भैंसों के हवाले कर दिया। मुजफ्फरनगर के दंगों को निशाना बनाकर मुलायम के मुस्लिम दादाओं ने मतदाताओं का धु्रवीकरण कर दिया। भाजपा को शायद इसी की जरूरत थी। परिणाम सामने है। भाजपा ने न सिर्फ मुजफ्फरनगर में शानदार जीत दर्ज कराई, समूचे प्रदेश में समाजवादी पार्टी को पांच सीटों पर सीमित कर दिया। बसपा का तो पूरा सफाया हो गया। कांग्रेस का तो होना ही था। उत्तर प्रदेश की हवा ने तय कर दिया कि मोदी ही देश के अगले प्रधानमंत्री होंगे।
[dc]ऊ[/dc]पर के विश्लेषण पर गौर करें तो भाजपा को देश के 16 राज्यों में लोकसभा की 385 सीटों में से 268 पर अपने दम पर विजय मिल गई। सहयोगी दलों तेलुगुदेशम, शिवसेना, अकाली दल, लोक-जनशक्ति पार्टी, ‘अपना दल’ आदि की सीटें अलग हैं। देश के शेष राज्यों की बची 158 सीटों का गणित भी समझना जरूरी है।
[dc]दे[/dc]श के अन्य राज्यों में प्रमुख हैं : तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, ओडिशा और केरल। इन चार राज्यों की कुल सीटों की संख्या 122 है। इन चार राज्यों से भाजपा को वर्ष 2009 के चुनावों में केवल एक सीट मिली थी। इस बार सीटों की संख्या बढ़कर केवल चार हुई है। पार्टी को तमिलनाडु में एक, ओडिशा में एक व पश्चिम बंगाल में दो स्थान मिले हैं। केरल में कोई सीट नहीं मिली। यानी मोदी लहर का असर यहां नहीं पहुंचा। पंजाब की तेरह सीटों का अलग से जिक्र होना चाहिए। वहां भाजपा का अकाली दल से तालमेल है। अकालियों के खिलाफ वहां जबरदस्त एंटी-इंकंबेंसी है, जिसका खामियाजा भाजपा को न सिर्फ अरुण जेटली की हार के रूप में भुगतना पड़ा, बल्कि उसे वहां केवल दो सीटें मिलीं। पिछली बार से केवल एक ज्यादा। यानी पंजाब में भी मोदी लहर ने काम नहीं किया। यहां अकालियों के प्रति नाराजगी समूची सरकार के खिलाफ एंटी-इंकंबेंसी में बदल गई और भाजपा भी उसका शिकार हो गई। आम आदमी पार्टी को यहां चार सीटें मिल गईं। इसका अर्थ है उक्त पांच राज्यों की 135 सीटों में से भाजपा को केवल छह सीटें मिलीं।
[dc]अ[/dc]ब हम शेष राज्यों (विशेषकर उत्तर-पूर्व के) और केंद्रशासित प्रदेशों की तरफ नजर करें। अरुणाचल, जम्मू-कश्मीर, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, नगालैंड, सिक्किम, त्रिपुरा, अंडमान-निकोबार, चंडीगढ़, दादरा और नागर हवेली, दमन और दीव, लक्षद्वीप, पुड्डुचेरी में कुल मिलाकर 23 सीटें हैं। वर्ष 2009 के चुनाव में भाजपा को इन स्थानों से केवल तीन सीटें प्राप्त हुई थीं। इस बार के चुनाव में सीटों की संख्या बढ़कर आठ हो गई। इनमें तीन जम्मू-कश्मीर की व एक सीट चंडीगढ़ की है। उत्तर-पूर्व के राज्यों में उसे अरुणाचल में एक सीट मिली है।
[dc]उ[/dc]क्त गणित का अर्थ यह है कि सोलह राज्यों की 385 सीटों में से भाजपा को 268 सीटें प्राप्त हुईं और शेष 19 राज्यों और केंद्र-शासित प्रदेशों की 158 सीटों में से भाजपा को पिछली बार की पांच सीटों के मुकाबले 14 सीटें मिलीं। यानी पिछली बार की तरह ही इस बार भी देश का एक बड़ा हिस्सा भाजपा के स्पर्श से अछूता रह गया। एक अन्य विश्लेषण यह हो सकता है कि अकेले भाजपा को प्राप्त कुल 282 सीटों में से 190 सीटें भाजपा-शासित पांच राज्यों तथा उत्तर प्रदेश, बिहार और दिल्ली से मिली हैं। इन राज्यों की कुल सीट संख्या 220 है। बाकी बची 92 सीटें पार्टी को शेष देश की 323 सीटों में से प्राप्त हुई हैं। अत: नरेंद्र मोदी की समूचे देश को सही अर्थों में जीतने की चुनौती अगले चुनाव तक कायम रहने वाली है। मोदी को अगर चुनाव प्रचार करने का थोड़ा लंबा समय मिल पाता तो तस्वीर बाकी देश में भी बदल सकती थी। फिर भी भाजपा मणिशंकर अय्यर का इतना आभार तो व्यक्त कर ही सकती है कि बड़बोले कांग्रेस नेता न तो एक ‘चाय बेचने वाले’ के स्वाभिमान को ललकारते और न कांग्रेस को आज ये दिन देखने पड़ते।