२ मार्च 2010
मीडिया में इन दिनों ‘पेड न्यूज’ को लेकर काफी चर्चाएं हैं। ‘एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया’ ने भी इस मामले को काफी जोर शोर से उठाया है और चुनाव आयोग से इस संबंध में उन उम्मीदवारों/मीडिया कर्मियों के खिलाफ कार्रवाई की मांग की है जो ‘राजनीतिक विज्ञापनों’ को ‘खबरों’ के रूप में प्रकाशित करवाने/ करने के जिम्मेदार ठहराए जा सकते हैं। भारतीय प्रेस परिषद ने भी इस विषय पर समाचार पत्रों के साथ संवाद शुरू किया है और पिछले दिनों कुछ बैठकों में उनसे सुझाव भी आमंत्रित किए गए हैं। ‘पेड न्यूज’ को लेकर चल रही बहस में किसी भी तरह की भागीदारी के पहले दो- तीन बातों पर गौर करना जरूरी है। पहली तो यह कि इसमें निशाने पर मुख्यत: प्रिंट मीडिया को ही लिया गया है। विजुअल मीडिया या इलेक्ट्रानिक चैनलों द्वारा चुनावों के दौरान प्रसारित की जाने वाली राजनीतिक खबरों के प्रसारण में कथित ‘पेड न्यूज’ की भूमिका की ज्यादा तलाश नहीं की गई है। प्रेस परिषद की छानबीन के दायरे में भी केवल प्रिंट मीडिया ही है। दूसरे यह कि प्रिंट मीडिया में भी व्यावसायिक रूप से प्रकाशित होकर बिकने वाले अखबारों के ही चुनावों के दौरान चाल-चलन को संदेह के घेरे में लाया गया है। राजनीतिक दलों अथवा राजनीतिक विचारधाराओं के साथ प्रतिबद्धता रखने वाले समाचार पत्रों में चुनावों के दौरान प्रकाशित होने वाली खबरों की पाठकीय विश्वसनीयता को लेकर बहस मौन है। तीसरे यह कि ठीक मतदान के दिन अथवा मतदान के पूर्व तक राज्य और केंद्र सरकारों द्वारा जारी होने वाले तथा उनकी उपलब्धियों को दर्शाने वाले ‘पेड’ परिशिष्टों तथा वीडियो संदेशों को भी बहस से परे रखा गया है। और अंत में यह कि ‘पेड न्यूज’ के विवाद की जड़ में उम्मीदवारों के लिए निर्धारित चुनाव खर्च की जो सीमा तय है उसे कम या ज्यादा करने का न तो प्रेस परिषद को और न ही चुनाव आयोग को कोई अधिकार प्राप्त है। चुनाव खर्च की सीमा संसद द्वारा निर्धारित की जाती है। उसमें कोई फेर-बदल भी जनता द्वारा चुने जाने वाले प्रतिनिधि ही कर सकते हैं। इनमें से कतिपय पर आरोप लगाए जा सकते हैं कि वे चुनाव के दौरान अपनी ‘राजनीतिक खबरें’ प्रकाशित करवाने के लिए ‘पेड न्यूज’ जैसे छद्म तरीकों का उपयोग करते हैं जिससे कि खर्च की निर्धारित सीमा का उल्लंंघन करने के आरोप से स्वयं को बचा सकें। एडिटर्स गिल्ड का कहना सही है कि इससे छपे हुए शब्द की विश्वसनीयता को तो क्षति पहुंचती ही है, इसका सबसे ज्यादा लाभ वे उम्मीदवार ले उड़ते हैं जो आर्थिक रूप से सक्षम होते हैं।
पर ‘पेड न्यूज’ पर चल रही बहस के दायरे को थोड़ा विस्तृत करके देखने की जरूरत है। खबरों की विश्वसनीयता के सवाल को अगर चुनावी आईने तक ही सीमित रखकर देखा जाएगा तो सात दिन और चौबीस घंटे वाले इलेक्ट्रानिक चैनलों और अखबारों के पन्नों पर दर्शकों और पाठकों को हर रोज उनकी बगैर जानकारी के खबरों के नाम पर जो कुछ भी परोसा जा रहा है वह सब बहस के बाहर ही छूट जाएगा। चुनावों के दौरान प्रकाशित होने वाली सभी तरह की ‘पेड न्यूज’, दर्शकों और पाठकों को प्रत्येक क्षण बांटे जा रहे विज्ञापनों के अरबों खरबों रुपए के संगठित उद्योग के मुकाबले कहीं नहीं ठहरती। और फिर चैनलों और समाचार पत्रों को बिना कुछ प्रसारित/ प्रकाशित किए भी सरकारों की ओर से प्राप्त होने वाले फायदों पर किस मद में चर्चा की जानी चाहिए? चुनावी निष्पक्षता के नाम पर पत्रकारिता को केवल बिकनी पहनाकर ही शहरभर में घूमने की इजाजत दी जाए या नहीं इस पर बातचीत करना जरूरी है। ‘पेड न्यूज’ के खिलाफ पत्रकार संगठनों के साथ-साथ मुख्य पहल तो उन सांसदों की ओर से होनी चाहिए जो कानून बदल भी सकते हैं और नए कानून बना भी सकते हैं। सांसद अगर इस तरह की मांग करते हैं और उसे मनवा लेते हैं कि चुनाव खर्च के लिए वर्तमान में निर्धारित सीमा को या तो पूरी तरह से समाप्त कर दिया जाए या फिर उसे ‘वास्तविक’ बनाया जाए तो इससे न सिर्फ निर्वाचन आयोग का बहुत सारा बोझ कम हो जाएगा, चुनावों के जरिए चलन में आने वाले काले धन पर भी कुछ रोक लगेगी। उस स्थिति में ‘पेड न्यूज’ जैसे मुद्दों पर बहस भी शायद समाप्त हो जाए। जब तक ऐसा नहीं हो पाता, पत्रकारों को उनके पाठकीय दायित्वों के प्रति शिक्षित करने का काम निश्चित ही जारी रखा जा सकता है।