ऊंची-ऊंची हवेलियों
में पसरे और
सोने-चांदी जड़े
मखमली गद्दों पर
पैदा होते थे सरकार कभी।
मिलने के लिए बनाकर
कतारें लंबी-लंबी
खड़ी रहती थीं बस्तियां
सुबह से शाम तक
पेश किया जाता था नज़राना
उतारी जाती थीं नज़रें
सरकार की।
साठ साल लंबी रात में
बदला तो है बहुत कुछ –
ज़मींदोज़ हो गई हैं मेहराबें
पट गई हैं दीवारें हवेलियों की
वक़्त के गहरे सुराखों से
पर नहीं बदले सरकार
और न ही उनके मखमली
गद्दे और पलंग।
बस्तियां खड़ी रहती हैं आज भी
वैसे ही सुबह से शाम तक
बने रहने के लिए
नज़रों में सरकार की।
बदलना तो लोगों को पड़ता है
सरकार नहीं बदलते।
सरकार ही फिर बनाते हैं सरकार
लोगों को चलाने के लिए
सरकार को भी है पता
ख़त्म तो लोग होते हैं
बस्तियां नहीं।
क़तारों में लोग नहीं,
बस्तियां होती हैं
जो बसती हैं पहाड़ों पर।