[dc]अपने[/dc] आसपास जो कुछ भी परिवर्तन होता हुआ हम देख रहे हैं, उसे लेकर हम अभिभूत तो हैं पर साथ ही आशंकित भी। अभिभूत इसलिए कि हम हालातों को लेकर बहुत ही चिंतित और परेशान थे। हमें लगने लगा था कि सबकुछ यंत्रवत हो गया है, चेहरे भी और अवधारणाएं भी। कुछ भी बदलने का नाम नहीं ले रहा। या यूं कहें कि बदल पाने का साहस नहीं जुटाया जा रहा है। और फिर, हमें अचानक लगने लगा कि हम केवल एक मशीनी भीड़ भर नहीं हैं, जीते-जागते समूह हैं। हमारी भी कुछ पहचान है, अस्मिता है। हम चीजों को उनकी स्थापित जगहों से हटा भी सकते हैं। वे प्रतिमाएं, जो हमारी आंखों को लगातार चुभ रही थीं, उनके चेहरों को विपरीत दिशाओं में मोड़ भी सकते हैं। अगर चाहें तो उन्हें अपने रास्तों से हटा भी सकते हैं। हमें डराया गया कि प्रतिमाएं तो स्थापित परंपराओं की तरह होती हैं। उनके साथ खिलवाड़ नहीं किया जाता। उन्हें ढोते रहना हमारी नियति है। वे हमारी नागरिकता और प्रतिबद्धता की प्रमाण हैं। और कि इतिहास में जब-जब भी प्रतिमाओं, प्रतिबद्धताओं, प्रमाणों के साथ किसी भी तरह की छेड़छाड़ की गई, राष्ट्र के राष्ट्र विनाश के रास्तों पर भटक गए। हमें बार-बार अपने शानदार अतीत, अपने गौरवशाली इतिहास और उसके पन्नों में जगह पाते नायकों और उनकी विजय-पताकाओं के हवाले दिए गए। पर हमने तो अब जैसे समूचे परिवेश को हर तरह की कीमत पर बदल देने का संकल्प ही कर लिया है। जैसे कि हम सत्ताओं की आत्माओं में चीजों को जड़-मूल से बदल देने की अपनी क्षमताओं के प्रति खौफ पैदा करना चाह रहे हों। हमें वास्तव में तो केवल अभिभूत होना चाहिए कि हम अपने संकल्पों को हकीकतों में बदलता हुआ देखने में सफल हो रहे हैं। या फिर, हमें ऐसा अनुभव होना चाहिए कि जो काम हमने हाथों में लिया था, वह पूरा भी किया जा सकता है। पर संभवत: एक ऐसे राष्ट्र के रूप में, जिसने विश्वयुद्धों की विभीषिका को वैसे अनुभूत नहीं किया, जैसा कि पश्चिम के देशों ने भुगता, या फिर ऐसे नागरिकों के रूप में, जो एक पश्चिमी राष्ट्र की गुलामी से मुक्त होने के लिए ज्यादातर अहिंसक लड़ाइयां लड़ते रहे, हमारी इस परेशानी का कोई दबा हुआ कारण हो सकता है कि हम अपने वर्तमान को लेकर हमेशा ही आशंकित बने रहते हैं। हमारा शायद स्वभाव बन गया है कि यथास्थितिवाद के खिलाफ लड़ाई लड़ने की उत्कट आकांक्षा रखते हुए भी हम प्राप्त परिणामों के स्थायित्व को लेकर आशंकाओं के कृत्रिम बादलों के निर्माण में जुटे रहते हैं। अपने वर्तमान के प्रति बहुत जल्दी व्याकुल और अधीर हो उठते हैं। शायद, यही कारण हो सकता है कि अपनी ही कोशिशों से हो रहे परिवर्तनों को लेकर भी हम फिर से उदास होने के बहाने ढूंढ़ना चाहते हैं, प्रयासपूर्वक आशंकित होते रहना चाहते हैं। जो कुछ भी हमें अब तक प्राप्त नहीं हुआ, या जिन स्वप्नों से वर्षों तक हमें दूर रखा गया, हम उन्हें हासिल करने का यह कहते हुए अधिकार जताना चाहते हैं कि हमें ऐसा ही आश्वस्त किया गया था। पर यह सत्य नहीं है। सत्य हो तो भी उसे सच के रूप में इसलिए स्थापित नहीं होने देना चाहिए कि परिवर्तन की जरूरत का इस्तेमाल ‘किराए की कोख’ की तरह नहीं हो सकता। तब तो ‘क्रांतियों’ के ‘मातृत्व’ और उनके ‘नायकों’ की वैधानिकता को लेकर सवाल उठने लगेंगे। इस तरह के खतरों के प्रति सावधान रहने की जरूरत है। एक लंबी प्रतीक्षा के बाद प्रारंभ हुई यात्रा के ठहरने के लिए रास्तों में छोटे-छोटे मुकाम खड़े करने के लोभ से कुछ फासलों के तय हो जाने तक बचना चाहिए। यह स्थापित किया जाना जरूरी हो गया है कि जो कुछ भी परिवर्तन हो रहे हैं, उसके सूत्रधार या रचनाकार हम ही हैं, कोई और नहीं। आगे भी ऐसा ही रहने वाला है। जो कुछ भी बदल रहा है या आगे बदलना चाहिए, वह आयातित नहीं है। आयातित क्रांतियां न तो स्थायी होती हैं और न ही देशी लोकतांत्रिक
संस्थाओं को मजबूत ही करती हैं। अपने परिवर्तनों का श्रेय किसी और को देने का अर्थ लोकतंत्र के नकाब में तानाशाही को आमंत्रित करने जैसा होगा। पंद्रह अगस्त 1947 की मध्यरात्रि को जिस परिवर्तन को हमने आत्मसात किया था, उसके पीछे अहिंसक धैर्य की एक लंबी और कठिन परीक्षा थी। अत: यह घड़ी परिवर्तन के परिणामों के प्रति आशंकित होने की नहीं, बल्कि जश्न मनाने की है।