[dc]बिहार[/dc] के मुख्यमंत्री और जदयू नेता नीतीश कुमार और आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल के साथ हुई मुलाकात के क्या अर्थ निकाले जाने चाहिए? नीतीश कुमार इस समय जिस तरह के राजनीतिक संकट और संघर्ष में उलझे हुए हैं, उन्हें शायद कोई उम्मीद हो सकती है कि केजरीवाल मदद कर सकते हैं.
बिहार में विधान परिषद के हाल के चुनावों में जिस तरह के परिणाम आए हैं उससे नीतीश और लालू का आत्मविश्वास अगर हिल गया हो तो कोई हैरानी वाली बात नहीं होगी. आम तौर पर यही माना जाता रहा है कि इस तरह के चुनावों में परिणाम सत्तारूढ़ दल के पक्ष में ही जाते हैं. पर ऐसा नहीं हुआ. हो सकता है कि नीतीश-लालू का महागठबंधन इसी अति आत्मविश्वास का शिकार हो गया हो.
नीतीश कुमार का अब इसे विधान सभा चुनावों में महागठबंधन की विजय के प्रति डांवाडोल होते हुए यक़ीन का संकेत भी माना जा सकता है कि वे स्वयं चलकर केजरीवाल से मिलने उनके सचिवालय पहुंचे. जानकारों का विश्लेषण है कि दोनों नेता किसी बीच के स्थान पर भी आपस में मिल सकते थे. दोनों के बीच हाल के महीनों में यह चौथी मुलाकात बताई जाती है.
सवाल अब यह भी है कि क्या केजरीवाल बिहार चुनावों में अपना समर्थन किसी ऐसे गठबंधन के साथ जोड़ना चाहेंगे जिसके नेताओं में लालू प्रसाद यादव भी एक प्रमुख चेहरा हों. और क्या लालू यादव भी कभी चाहेंगे कि महागठबंधन को अपनी जीत के लिए केजरीवाल की तरफ देखना पड़े.
हाल-फिलहाल तो ऐसा संभव होता दिखाई नहीं देता. पर चूँकि बिहार विधान सभा के लिए चुनावों की तारीखों का ऐलान अभी नहीं हुआ है और इधर लालू के कुछ सहयोगियों ने मानना शुरू कर दिया है कि गठबंधन अभी कागजों पर ही है, आगे चलकर सब कुछ संभव है. शायद इसीलिए नीतीश कुमार अपने पक्ष की सारी संभावनाओं को टटोल लेना चाहते हैं. नीतीश कुमार और अरविंद केजरीवाल दोनों नेताओं के बीच कम से कम एक चीज़ तो सामान है और वह यह है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को लेकर दोनों के विचार एक हैं.
दोनों ही नेता मोदी की सत्ता को खुलकर चुनौती दे रहे हैं. इन दो के अलावा ऐसा कोई और मुख्यमंत्री नहीं है जो इतना मुखर होकर बोल रहा हो. इसलिए बिहार में अगर नीतीश-लालू का महागठबंधन सत्ता की दौड़ में भारतीय जनता पार्टी से पीछे रह जाता है तो निश्चित ही उसका असर केजरीवाल की दिल्ली में मौजूदा हैसियत पर भी पड़ने वाला है. और अगर जीत जाता है तो उसका प्रभाव समूचे देश की विपक्षी राजनीति के साथ-साथ भाजपा के अंदरूनी समीकरणों पर भी पड़ेगा.
प्रश्न यह भी है कि धन, जाति और बाहुबलियों के दम पर जिस तरह से बिहार की सारी राजनीति चलती है और चुनाव लड़े जाते हैं, उसमें नीतीश कुमार के केजरीवाल को दिए जाने वाले महत्व का कितना औचित्य हो सकता है? केजरीवाल अगर नीतीश के पक्ष में अपनी बंद मुट्ठी खोल देते हैं और उसके बाद भी अगर पटना में भाजपा की सरकार बन जाती है तो फिर क्या उसे आम आदमी पार्टी की लोकप्रियता के ख़िलाफ़ भी जनमत संग्रह नहीं मान लिया जाएगा?
हालांकि सत्य यह भी है कि नीतीश कुमार पहले भी केजरीवाल के समर्थन में खड़े होते रहे हैं और अब उन्होंने आम आदमी पार्टी की दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिए जाने की मांग का भी समर्थन कर दिया है. माना जा सकता है कि गेंद अब केजरीवाल के पाले में है और बिहार को लेकर फैसला ‘आप’ नेता को ही करना है.
नीतीश कुमार को बिहार चुनावों के दौरान खुले समर्थन की घोषणा जदयू को फ़ायदा और महागठबंधन को नुकसान भी पहुंचा सकती है. देखना यह होगा कि केजरीवाल को लेकर लालू का ऊंट किस करवट बैठता है.