नहीं समझ पाते बच्‍चे कुछ भी

मर्द जब जाते हैं मोर्चों पर
बीवियां बुनती हैं पहाड़।
सीखते हैं बच्‍चे लिखना –
गिनती और पहाड़े
पोखरों में थमे हुए
बरसात के पानी पर।
फिर अचानक एक दिन
खटखटाने लगते हैं दरवाज़े
वायरलेस संदेश।
बढ़ जाती है चहल-पहल गांव में
शामिल हो जाते हैं भीड़ में बच्‍चे भी
लिखना छोड़ लहरों पर गिनतियां।
पर नहीं निकलतीं फिर भी
बीवियां घरों से बाहर
नहीं देखतीं भीड़ को भी वे
जानती हैं वे केवल इतना भर
और भी ऊंचा हो गया है अब
बुन रही थीं जो पहाड़ वे
सन्‍नाटे को दबाए हुए अपने भीतर
पर समझ नहीं पाते कुछ भी
बच्‍चे, घरों को वापस लौटने पर भी
क्‍यों कर सूख गए हैं पोखर
उलीच रही हैं क्‍यों पानी
आंखें मां की बार-बार।

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