मेलबोर्न और सिडनी में भारतीय छात्रों पर हुए हमलों की घटनाओं को लेकर भारतीय मीडिया में जिस तरह का तूफान मचा हुआ है अगर हालात उतने ही संगीन हैं तो वाकई चिंता की बात है। पर इस तरह की घटनाओं को लेकर पिछले तमाम अनुभवों का सार यही है कि एक समय के बाद सबकुछ शांत और यथावत हो जाता है। ऑस्ट्रेलिया के संदर्भ में भी यही माना जा सकता है कि या तो नस्ली या अन्य किस्म के हमलों की घटनाएं थोड़े वक्त या एक लंबे समय के लिए बंद हो जाएंगी या फिर उनको लेकर व्यक्त की जाने वाली चिंताएं एक लाइलाज मर्ज में तब्दील होकर मीडिया की सुर्खियों से गायब होने लगेंगी।
नस्ली भेदभाव की समस्या का हल कोई सरकार कानून बनाकर या अपने ही नागरिकों पर दबाव बनाकर ढूंढ़ सकती है, इसमें शक है। जो लोग ऑस्ट्रेलिया या न्यूजीलैंड को थोड़ा बेहतर जानते हैं उन्हें पता है कि इन देशों की हुकूमतें अपने ही मूल नागरिकों (जिन्हें भारत में आदिवासी कहा जाता है) और शेष देशवासियों के बीच समृद्धि में न्यायसंगत भागीदारी की समस्या से एक लंबे समय से जूझ रही हैं। अत: भारतीय मूल के छात्रों को निशाना बनाकर हो रही घटनाएं घबराहट पैदा करने वाली तो हैं पर उनके साथ निपटने के बेहतर रास्ते ढूंढ़ने के बजाए ऑस्ट्रेलिया को एक असुरक्षित ठिकाना करार देकर उड़ानों का मुंह मोड़ने की सलाह पर सोच-समझकर ही कान दिया जाना चाहिए।
मामला केवल इतने तक सीमित नहीं है कि लगभग एक लाख भारतीय छात्र इस समय ऑस्ट्रेलिया के विभिन्न शहरों में अध्ययनरत हैं और उनकी संख्या में किसी भी तरह की कमी या उनकी स्वदेश वापसी अरबों डॉलर की सालाना कमाई वाले वहां के ‘शिक्षण उद्योग’ पर पलीता लगाने के लिए पर्याप्त है और कोई भी समझदार सरकार मंदी के एक ऐसे दौर में जब उसके आमदनी के स्थापित स्रोतों पर ताले पड़ रहे हों, इस तरह की जोखिम उठाने का साहस नहीं करेगी। छात्रों को मायनस कर दें तब भी हजारों की संख्या में भारतीय मूल के परिवार ऑस्ट्रेलिया (और न्यूजीलैंड) मंे दशकों से बसे हुए हैं और वहां ईमानदारी के साथ नौकरी-धंधे करने के साथ ही भारत की समृद्धि में भी अपना योगदान दे रहे हैं। इस सच्चई से भी मुंह नहीं मोड़ा जा सकता है कि मंदी की मार जब-जब भी पड़ेगी, गोरी चमड़ी वाले बेरोजगार युवाओं के हमलों की चपेट में सबसे पहले भारतीय छात्रों की समृद्धि और मेहनत ही आएगी। ऐसा सब जगह और सभी देशों में हो रहा है। इंग्लैंड में तो दशकों से और सरेआम हो रहा है। ‘रिएलिटी शो’ में शिल्पा शेट्टी पर की गई नस्ली टिप्पणियों के बाद आम भारतीयों के प्रति अंग्रेज बहादुर कौम ज्यादा उदार हो गई हो ऐसा पता नहीं चलता। हां यह जरूर हुआ है कि भारतीय अभिनेत्री इंग्लैंड में ज्यादा रहने और कमाने लगी हैं।
पिछले कुछ महीनों में भारतीय छात्रों को जिस घृणित तरीके से अमेरिका जैसे देश मंे भी मौत का शिकार बनाया गया वह दुखद और निंदनीय होने के साथ-साथ अपमानजनक भी है। साथ ही यह भी उतना ही सच है कि असली-नकली तरीकों से वीजा प्राप्त करके योरप-अमेरिका पहुंचने वालों की संख्या कम होने के बजाए सालों-साल बढ़ ही रही है। ऑस्ट्रेलियाई शहरों में हुई नस्ली हिंसा का सकारात्मक पक्ष यह है कि वहां के मीडिया और गोरी चमड़ी वाले भद्र नागरिकों के समाज, दोनों ने ही पीड़ित भारतीय छात्रों के साथ सहानुभूति व्यक्त की है और संबंधित प्रांतीय सरकारों के साथ ही अपने देश की हुकूमत पर भी इन हमलों में शामिल असामाजिक तत्वों के खिलाफ वे कार्रवाई करने की मांग कर रहे हैं। यह तथ्य भी किसी से छुपा हुआ नहीं है कि मंदी से जूझ रहे ऑस्ट्रेलिया में बेरोजगारी भुगत रही युवकों की फौज सरकारी भत्तों की बदौलत न सिर्फ नशे की गिरफ्त में कैद होती जा रही है, वहां के आम समाज में भी बढ़ते अपराधों को लेकर लगातार असुरक्षा महसूस की जा रही है। इस सच्चई से कैसे इंकार किया जा सकता है कि लाखों खर्च करके हजारों की तादाद में ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों तक उड़ान भरने वाले छात्रों के अंदर भी कहीं न कहीं यह सपना तो बसा हुआ होता ही है कि पढ़ाई के बाद नौकरी भी वहीं मिल जाए और वहां की नागरिकता भी। लड़ाई असल में लगातार सीमित होती संपन्नता में हिस्सा बंटाने की है जो नस्ली हिंसा के रूप में एक कमजोर पक्ष के खिलाफ व्यक्त हो रही है। और वह शिक्षण माफिया जो भारतीय छात्रों को झूठे सपने बेचकर विदेशी विश्वविद्यालयों की खूबसूरत इमारतें और वहां की रंगीनी दिखाता है, इस तरह के हमलों के खिलाफ संरक्षण देने के मामलों में अपने आपको जान-बूझकर अक्षम साबित होने देता है।
ऑस्ट्रेलिया जैसे विकसित देशों को अगर मंदी के दौर से लगातार जूझना पड़ता है तो वहां की सरकारों के लिए यह एक राष्ट्रीय मजबूरी बन जाएगी कि अपनी शिक्षण फैक्ट्रियों को चालू रखने के लिए अधिक से अधिक विदेशी छात्रों की हर कीमत पर भर्ती भी करें और साथ ही इस बात के लिए भी अपने को तैयार रखें कि नस्ली हिंसा की घटनाएं कम होने के बजाए और बढ़ सकती हैं। पिछले छह महीनों के दौरान ही भारतीय छात्रों के खिलाफ हमलों की पांच सौ वारदातों का होना इसका प्रमाण है। ऑस्ट्रेलिया के लिए मंदी की मार का सबसे बुरा वक्त भी यही रहा है। ये वारदातें वास्तव में वे हैं जो पुलिस रिकार्ड में दर्ज हैं। उन घटनाओं का कभी पता नहीं चलेगा जिन्हें प्रभावित छात्र एक विदेशी जमीन पर अपनी मौजूदगी और संभावित दुष्परिणामों की आशंकाओं के चलते वहां की पुलिस तक पहुंचाने की हिम्मत नहीं जुटा पाए होंगे। साथ ही इस तरह के स्पष्टीकरण भी कभी तसल्ली नहीं देंगे कि हमले नस्ली नहीं बल्कि आपराधिक प्रकृति के हैं और कि इनका संबंध भारतीय छात्रों की संपन्नता के सार्वजनिक प्रदर्शन से है।
सवाल यह भी उठता है कि जब हमने विकास के एक ऐसे मॉडल के साथ अपने को जोड़ने की स्वीकृति प्रदान कर दी है जिसमें सरकारों का रोल लगातार कम हो रहा है, निजी सुरक्षा को लेकर राष्ट्रपतियांे और प्रधानमंत्रियों के आश्वासनों पर एक सीमा के आगे भरोसा नहीं किया जा सकता, वे चाहे फिर किसी भी देश के क्यों न हों। राष्ट्राध्यक्ष इस तरह की घटनाओं के बाद खेद व्यक्त करने से आगे बढ़कर कुछ कर दें तो उसे बोनस ही माना जा सकता है। दबाव तो पीड़ित पक्ष को अपने स्तर पर ही बनाना पड़ेगा कि नस्ली हिंसा की घटनाएं हरेक कीमत पर रोकी जाएं और इस दबाव में सरकार के साथ-साथ ऑस्ट्रेलियाई नागरिकों को भी भागीदार बनाना पड़ेगा। इस काम की शुरुआत भारत में बैठे हुए लोग तो निश्चित ही नहीं कर पाएंगे।