[dc]अ[/dc]रविंद केजरीवाल दिल्ली के आम आदमी से एक और चुनाव में भागीदारी चाहते हैं। इसका कारण यह है कि उनकी ‘आम आदमी पार्टी’ को सरकार चलाने के लिए पर्याप्त बहुमत 4 दिसंबर को हुए मतदान में नहीं मिला है। केजरीवाल, मनीष सिसोदिया, संजय सिंह और ‘आम आदमी पार्टी’ के बाकी नेताओं का शायद मानना है कि अगर एक और चुनाव हो जाएगा तो उनकी पार्टी को सरकार चलाने के लिए पर्याप्त या उससे भी ज्यादा बहुमत मिल जाएगा। पर अगर दूसरे चुनाव में भी वर्तमान स्थिति ही कायम रहती है या ‘आप’ के विधायकों की संख्या कम हो जाती है, फिर भी क्या उसकी यही ताकत और छवि आगे भी बनी रहेगी? ‘आम आदमी पार्टी’ का हालिया ‘स्टैंड’ साफ है कि न तो किसी और को अपना समर्थन देंगे और न ही किसी से लेंगे। इसे एक गैर-राजनीतिक पार्टी का राजनीतिक स्टैंड भी कहा जा सकता है। सामान्य परिस्थितियों में भाजपा को सबसे ज्यादा विधायकों वाला दल होने के कारण अल्पमत की सरकार बनाने के लिए तैयार हो जाना चाहिए, पर डॉ. हर्षवर्द्धन ऐसा नहीं करना चाहते। कारण साफ और समझ में आने जैसा है। वे केजरीवाल की मंशा भी जानते हैं और ऐसी किसी अल्पमत की सरकार के सामने पैदा हो सकने वाले खतरों से भी परिचित हैं। अत: दूसरे राज्यों में जोड़-तोड़कर सरकारें बनाने के प्रयोगों की अनुभवी भाजपा भी ‘आप’ की तरह दिल्ली में सौ प्रतिशत साफ-सुथरा खेल खेलते हुए विपक्ष में ही बैठना चाहती है। किसी की भी सरकार नहीं बनती है तो वह भी ‘आप’ की तरह ही फिर से चुनावों के लिए तैयार है।
[dc]’आ[/dc]म आदमी पार्टी’ यह स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है कि दिल्ली में भी कांग्रेस का सफाया काफी हद तक केंद्र के खिलाफ अन्य तीन राज्यों में व्यक्त हुई एंटी-इंकंबेंसी का ही एक हिस्सा है। ‘आम आदमी पार्टी’ को जो वोट मिले हैं, वे केंद्र वाली कांग्रेस के प्रति नाराजगी के ही ज्यादा हैं। दिल्ली का ‘मेंडेट’ भाजपा के खिलाफ नहीं है। ‘आम आदमी पार्टी’ जिस तरह से फिर से चुनावों की तैयारी दिखा रही है, उससे यह खतरा मौजूद रहता है कि समय बीतने के साथ-साथ मतदाताओं की ‘कुछ’ सहानुभूति कांग्रेस की ओर वापस लौटने लगे और साथ ही भाजपा को भी पूर्ण बहुमत की तरफ ले जाए। दिल्ली में अगर ‘राष्ट्रपति शासन’ लगता है तो वह कम से कम पांच-छह महीने यानी लोकसभा चुनावों तक चलेगा। इस दौरान भारतीय जनता पार्टी भी लोकसभा चुनावों के लिए अपनी ताकत झोंकने वाली है। दिल्ली में लोकसभा की सातों सीटें कांग्रेस के पास हैं। ऐसी स्थिति में ‘आम आदमी पार्टी’ के रास्ते चलकर कांग्रेस भी दिल्ली में नए सिरे से अपनी ताकत लगाएगी। सोनिया गांधी ने इशारा किया है कि प्रधानमंत्री पद के लिए किसी नए नाम की घोषणा हो सकती है। वह नाम प्रियंका गांधी का भी हो सकता है। और सबसे बड़ा मुद्दा यह है कि सरकार में सन्नाटे के दौरान ‘आम आदमी पार्टी’ सड़कों पर आंदोलन किसके खिलाफ चलाएगी? बहुमत के अभाव में अगर हर्षवर्द्धन अल्पमत की सरकार बनाने को तैयार हो जाते हैं तो यह संकट हमेशा बना रहने वाला है कि ‘आम आदमी पार्टी’ और कांग्रेस उन पर इस बात का लगातार दबाव बनाकर रखें कि भाजपा अपना चुनावी घोषणापत्र लागू करके दिखाए। ‘आम आदमी पार्टी’ का अगला लक्ष्य निश्चित ही न सिर्फ विधानसभा के लिए पूर्ण बहुमत प्राप्त करना होगा, बल्कि दिल्ली की सातों लोकसभा सीटों पर कब्जा करना भी। अरविंद केजरीवाल को ‘मोदी लहर’ की चिंता केवल इस एक कारण से नहीं है कि नरेंद्र मोदी के व्यापक चुनाव प्रचार के बावजूद भाजपा का वोट शेयर पीछे के मुकाबले कम हुआ है और सीटों की संख्या में केवल आठ का इजाफा हुआ है। केजरीवाल के गणित से चलें तो कांग्रेस की कम हुई 35 सीटों में से केवल 28 का लाभ तो ‘आप’ को ही मिला है और शेष भाजपा के खाते में गई हैं। ‘आम आदमी पार्टी’ के लिए अब आगे का रास्ता इसलिए मुश्किलों से भरा है कि जनता के असंतोष को अपने प्रति सहानुभूति में तब्दील करने के लिए जो शीला दीक्षित अभी तक उपस्थित थीं, वे अब मंच से गायब हैं और डॉ. हर्षवर्द्धन उनकी जगह लेने के लिए तैयार नहीं हो रहे हैं। ‘आम आदमी पार्टी’ का संकट अब यह बनने वाला है कि जनता के सामने उसका अगला एजेंडा क्या होना चाहिए? वे तमाम युवा और अन्य समर्थक, जो एक बड़ी उम्मीद के साथ ‘आम आदमी पार्टी’ के साथ जुड़े थे, उनके लिए ताजा परिस्थितियों में अरविंद केजरीवाल का क्या संदेश है, यह पता चलना चाहिए। जय-जयकार का दौर तो आगे-पीछे ठंडा पड़ने वाला है।