डर त्रासदी का नहीं, भरोसा उठ जाने का है

९ जून २०१०

भोपाल गैस त्रासदी को लेकर अदालत द्वारा सोमवार को दिए गए फैसले के बाद से नई दिल्ली स्थित सत्ता के गलियारों में सांसें उखड़ी हुई हैं। मुख्य न्यायिक दंडाधिकारी मोहन पी तिवारी द्वारा सुनाए गए फैसले के बाद चिंता इस बात को लेकर शायद कम है कि त्रासदी के कोई २५ वर्षों के बाद भी शारीरिक यातनाएं भुगत रहे लाखों बाशिंदों या कि उन हजारों लोगों के परिवारों के साथ, जिनकी जानें दो और तीन दिसंबर,१९८४ की दरम्यानी रात और उसके बाद चली गई थीं, घोर अन्याय हुआ है। ज्यादा चिंता फैसले के कारण उपजने वाले राजनीतिक परिणामों, जिनमें कि बहुचर्चित एटमी जनदायित्व बिल का भविष्य भी शामिल है, को लेकर है। पिछले २५ वर्षों के दौरान भोपाल और दिल्ली में कई सरकारें आईं और चली गईं पर त्रासदी के दोषियों को सजा दिलाने या वारेन एंडरसन को पकडक़र भारत लाने की मांग को लेकर समूची लड़ाई केवल गैस पीडि़त और उनके संगठन ही लड़ते रहे, सरकारें तो बस मंत्रालयों से आश्वासन लीक करती रहीं। भोपाल की त्रासदी न तो हिरोशिमा और नागासाकी की तर्ज पर राष्ट्रीय प्राथमिकताओं में प्रामाणिकता के साथ शुमार हो पाई और न ही पीडि़तों के प्रति सहायता और सहानुभूति के दरवाजे कभी पूरी तरह से खुले पाए गए। समूचे देश को पहले तो वर्षों तक बोफोर्स कांड में व्यस्त रखा गया और जनता को क्वात्रोक्कि के प्रत्यर्पण के झांसे दे-देकर मूर्ख बनाया गया और अब हेडली से पूछताछ को लेकर एक ऐसा माहौल बनाया जा रहा है जो सालों-साल चलेगा और जिसके परिणाम भी धीमी गति के समाचार बुलेटिनों की तरह ही प्राप्त होते रहेंगे। भोपाल अदालत के फैसले के बाद खुलासे हो रहे हैं कि किस तरह से तत्कालीन नरसिंह राव सरकार द्वारा अप्रैल,१९९४ में केंद्रीय जांच ब्यूरो पर दबाव बनाया गया कि वह एंडरसन के प्रत्यर्पण की कार्रवाई के लिए ज्यादा जोर नहीं डाले। और इसके भी दस साल पहले ७ दिसंबर,१९८४ को किस तरह से वारेन एंडरसन को मुंबई से भोपाल ‘आमंत्रित’ कर पहले तो उसकी औपचारिक गिरफ्तारी जाहिर की गई और फिर कुछ ही घंटों बाद तत्कालीन चीफ सेके्रटरी द्वारा त्रासदी के रचनाकार को ‘ससम्मान’ जमानत पर रिहा करवाने के आदेश संबंधित अधिकारियों को दिए गए। त्रासदी के दोषी केवल वे आठ (या एंडरसन जिसका कि भोपाल की अदालत द्वारा दिए गए फैसले में उल्लेख तक नहीं है) ही नहीं हैं, जिनके बारे में निर्णय सुनाया गया है, वे तमाम लोग भी हैं जिन्होंने प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से अपराधियों की मदद करने में कोई कोताही नहीं बरती। विधि मंत्री वीरप्पा मोइली का कहना है कि एंडरसन के खिलाफ गैस त्रासदी संबंधी मामला अभी खत्म नहीं हुआ है। मोइली के कथन से न तो नब्बे साल की उम्र के करीब पहुंच रहे वारेन एंडरसन की सेहत पर कोई फर्क पड़ता है और न ही एक-चौथाई शताब्दी के बाद भी त्रासदी की शारीरिक और मानसिक यंत्रणाएं भुगत रहे भोपाल के लाखों बाशिंदों के स्वास्थ्य पर। सरकार का यह कदम भी पूरे मामले को नौकरशाही के ठंडे बस्ते में सरका देने से ज्यादा अहमियत नहीं रखता कि इतनी बड़ी त्रासदी को लेकर आगे की कार्रवाई पर विचार के लिए मंत्रियों का एक समूह गठित कर दिया गया है। केंद्र सरकार की झोली में पहले से ही ऐसे कई मसले जमा हो चुके हैं जिन पर फैसलों के लिए मंत्रियों के समूह काम कर रहे हैं। हकीकत तो यह है कि अपनी हिफाजत को लेकर नागरिकों में उनके ही द्वारा चुनी जाने वाली सरकारों के प्रति भरोसा लगातार कम होता जा रहा है। पर इस त्रासदी का कोई इलाज भी नहीं है और उसकी किसी भी अदालत में सुनवाई भी नहीं हो सकती कि सरकारों को अपने प्रति कम होते जनता के यकीन को लेकर कौड़ी भर चिंता नहीं है। जनता पर राज करने वालों को पता है कि उन्हें न तो भगोड़ा करार दिया जा सकता है और न ही उनके खिलाफ कोई अपराध कायम किया जा सकता है। वारेन एं
डरसन को भोपाल छोडऩे के लिए आखिरकार सरकारी विमान ही तो उपलब्ध कराया गया था। देश पूरी फिक्र के साथ किसी नई त्रासदी की प्रतीक्षा अवश्य कर सकता है।

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