९ जुलाई २०११
विपक्षी दल इस समय ‘मजा आ रहा है’ की मुद्रा में हैं। वे आनन्दलोक की स्थिति में हैं कि सरकार का एक और मंत्री विदा हो गया। सरकार जितनी ज्यादा कमजोर होती जाती है विपक्ष के लिए जश्न मनाने का कारण भी उतना ही मजबूत बनता जाता है। पर देश की जनता के साथ ऐसा कतई नहीं है। सरकारों का कमजोर होना जनता को ही सबसे ज्यादा परेशान करता है। टीवी चैनलों पर सरकार के खिलाफ विपक्षी नेताओं के आक्रामक तेवरों और उनकी भाव-भंगिमाओं को देखकर अनुमान लगाया जा सकता है कि वे किस फिराक में हैं और किस घड़ी का बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं। विपक्ष को केवल इसी बात की प्रतीक्षा है कि सरकार का अब कौन सा मंत्री भ्रष्टाचार के आरोपों के तहत पकड़ा जाता है। सही पूछा जाए तो भ्रष्टाचार को उजागर करने का काम विपक्ष को नहीं करना है। यह दायित्व तो अदालतों और/या मीडिया के हवाले कर दिया गया है। यूपीए-दो की पिछले दो सालों की परेशानियों का अगर विश्लेषण किया जाए तो आसानी से समझ में आ जाएगा कि फैसले अदालतों में हो रहे हैं और उन पर अमल के लिए सरकार पर दबाव लाने का काम मीडिया कर रहा है। विपक्ष का काम केवल टीवी चैनलों और अखबारों में प्रतिक्रिया देने भर का बन गया है। देश के नागरिकों की इस अपेक्षा की किसी को फिक्र नहीं है कि जब सरकार गलतियां करने लगे तो विपक्ष उसे सही रास्ता दिखाए। वास्तव में हो यह रहा है कि विपक्ष चौराहों पर पेड़ की ओट में खड़े रहने वाले यातायात के उस जवान की तरह बर्ताव कर रहा है जो वाहन चालकों को ट्रैफिक के नियमों का उल्लंघन करने से रोकने के बजाए इस कोशिश में ज्यादा दिखाई पड़ता है कि लोगों को कैसे गलती करते हुए पकड़े और फिर उनका चालान काटे। विपक्ष की ऐसी भूमिका केवल केंद्र तक ही सीमित नहीं है। राज्यों में भी उसकी भूमिका दंगों के बाद पुलिस के मौके पर पहुंचकर पंचनामा तैयार करने जैसी ही है। सभी पार्टियों का मूल चरित्र एक जैसा यानी सत्ता-केंद्रित राजनीति करना ही बना हुआ है। जो कांग्रेस पार्टी केंद्र में सत्ता में है वही अधिकांश राज्यों में विपक्ष में है पर वहां उसका भी व्यवहार उस विपक्ष से भिन्न नहीं है जो दिल्ली में संसद के अंदर और बाहर व्यक्त होता है। राजनीतिक दल नागरिकों का शिक्षण करने को तैयार नहीं हैं कि वर्ष 1952 में हुए पहले चुनाव के बाद से देश की संसद में विपक्ष का नेतृत्व किस तरह की हस्तियों ने किया है। पंडित जवाहरलाल नेहरू, लालबहादुर शास्त्री और श्रीमती इंदिरा गांधी के जमानों में किस तरह के तो विपक्षी नेता और कितनी ऊंचाई के राजनीतिक दलों के प्रमुख और अन्य पदाधिकारी हुआ करते थे। एक अकेले डॉ. राम मनोहर लोहिया या अटल बिहारी वाजपेयी जैसे ओजस्वी व्यक्तित्व और वक्ता किसी समय समूची संसद और देश को तब हिलाए रखते थे। अशोक मेहता, किशन पटनायक, मधु लिमये, जार्ज फर्नांडिस, एच. वी. कामथ, सुरेन्द्रनाथ द्विवेदी, मधु दंडवते, प्रकाशवीर शास्त्री, अजय घोष, ए. के. गोपालन, हीरेन मुखर्जी, बी. टी. रणदिवे, भूपेश गुप्त, इंद्रजीत गुप्त और एस. ए. डांगे जैसी हस्तियां विपक्ष में और कांग्रेस में ही रहते हुए पार्टी की जन-विरोधी नीतियों का विरोध करने वाले चन्द्रशेखर, कृष्णकांत, रामधन, मोहन धारिया और तारकेश्वरी सिन्हा जैसी नेता भी कभी संसद में हुआ करते थे। कोई बतलाए कि हम आज कहां पहुंच गए हैं? जनता को किन नेताओं की जुबान पर भरोसा करना चाहिए?
डॉ. लोहिया कहते थे कि उनकी जगह तो केवल जेलों में ही रहने वाली है क्योंकि कोई भी हुकूमत कभी आदर्श नहीं होगी और वे चूंकि हर हुकूमत की गलत नीतियों का विरोध करते रहेंगे वह भी उन्हें जेलों में ही डालती रहेगी। केंद्र और राज्यों में हम आज जिस तरह के विपक्ष से मुखातिब हैं उसमें जेलों मेें जाने की तैयारी रखने वाले लोग शायद अंगुलियों पर गिनने जितने ही बचे होंगे। ‘किस्सा आपातकाल’ अगर छोड़ दें तो पिछले तीन दशकों में जनहित के आंदोलनों को लेकर जेलों में जाने वालों के मुकाबले आपराधिक कारणों से बंद होने वाले नेताओं की संख्या ही ज्यादा मिलेगी। अब तो केवल बयानबाजी करके अथवा ऐसे धरने देकर ही आंदोलन का काम चल जाता है जिसमें बसों में भरकर लोगों को पहले थानों पर ले जाया जाता है और फिर पूडिय़ां खिलाकर ससम्मान छोड़ दिया जाता है। भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई को सत्ता-प्राप्ति के हथियार में इस गलतफहमी में बदला जा रहा है कि जनता अगर मूर्ख नहीं हो तो उसे बनाया जा सकता है। ऐसा बिल्कुल भी सच नहीं है। जनता की रुचि सत्ता परिवर्तन में नहीं बल्कि व्यवस्था अथवा व्यवस्थापन परिवर्तन में है। दुर्भाग्यपूर्ण है कि व्यवस्था परिवर्तन के लिए जनता अथवा सिविल सोसायटी के दबाव को विपक्षी पार्टियां उसकी सत्ता परिवर्तन को इच्छा के रूप में देख रही हैं। प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह के ‘गठबंधन की मजबूरियों’ वाले तर्क को अगर स्वीकार कर लिया जाए तब भी विपक्ष के सामने तो ऐसी कोई मजबूरी नहीं थी कि वह लोकपाल की स्थापना को लेकर सिविल सोसायटी के मसौदे पर ईमानदारी के साथ जनता के सामने अपना पक्ष नहीं रखतीं। अंत में हुआ यही कि संसद की सर्वोच्चता और सांसदों के संवैधानिक अधिकारों का हवाला देते हुए सिविल सोसायटी के मसौदे को सलाद बनाकर हजम कर लिया गया। विपक्षी दलों मेंं साहस होता तो वे या तो सिविल सोसायटी के मसौदे का समर्थन करते, या फिर सरकार के मसौदे पर अपनी राय देते या फिर अपनी ओर से कोई तीसरा मसौदा पेश करते। पर ऐसा कुछ भी नहीं किया गया। जनता को यह अनुमान लगाने के लिए स्वतंत्र छोड़ दिया गया है कि विपक्षी दलों को एक मजबूत लोकपाल नहीं बल्कि एक कमजोर सत्ता चाहिए जिसे कि सुविधानुसार तोड़ा-मरोड़ा जा सके। विपक्ष ने अगर जनता के पक्ष में लड़ाई के अपने हथियार अब भी नहीं बदले तो वक्त आने पर उसके सारे अनुमान गलत भी साबित हो सकते हैं। टीवी के परदों पर जनता तो नेताओं के चेहरों को देख सकती है, जनता के चेहरे उस पर दिखाई नहीं पड़ते हैं।