२३ जुलाई २०१०
प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह द्वारा सोमवार से प्रारम्भ हो रहे संसद के मानसून सत्र में आने वाले विषयों पर विचार करने के लिए दिए गए भोज का न्यौता ठुकराकर भारतीय जनता पार्टी के शीर्ष नेतृत्व ने यही संदेश दिया है कि देश के सबसे बड़े विपक्षी दल का एजेंडा नई दिल्ली में नहीं, बल्कि गांधीनगर में तय होता है। गुजरात के गृह राज्यमंत्री के खिलाफ सोहराबुद्दीन फर्जी मुठभेड़ मामले में की जा रही जांच को लेकर भाजपा का शीर्ष नेतृत्व इस तरह से उत्तेजित है कि जैसे सीबीआई को मोहरा बनाकर डॉ. मनमोहन सिंह की सरकार देश में कोई आपातकाल लगाने जा रही है और इस सिलसिले में पहली गिरफ्तारी अमित शाह की ही होने वाली है। सोहराबुद्दीन फर्जी मुठभेड़ मामला पिछले पांच वर्षों से चर्चा और जांच में है। सोहराबुद्दीन को 25 नवंबर २००५ को अहमदाबाद के नारोल हाई वे पर कथित मुठभेड़ में मार गिराया गया था। इस ‘मुठभेड़’ की जैसे-जैसे परतें खुलती गईं जांच में पाया गया कि वह ‘फर्जी’ थी। इसी फर्जी मुठभेड़ को लेकर कई अफसरों की पूर्व में ही गिरफ्तारियां हो चुकी हैं। उन्हें जेलों में भी भेजा जा चुका है। पर भारतीय जनता पार्टी ने इससे पहले कभी भी इतनी तेज आवाज में जांच एजेंसी के केंद्र द्वारा दुरुपयोग को टकराव का मुद्दा नहीं बनाया। भाजपा का समूचा नेतृत्व आज गुजरात सरकार के किए धरे और उसकी विश्वसनीयता को केवल इसलिए दांव पर लगाने को तैयार हो गया है कि अमित शाह प्रदेश में अब तक के सबसे ताकतवर मुख्यमंत्री के सबसे विश्वस्त व्यक्ति हैं और गृह राज्यमंत्री के खिलाफ होने वाली किसी भी कार्रवाई पर चुप्पी को श्री मोदी की सत्ता को चुनौती देना माना जाएगा। केंद्र और राज्यों में समय-समय पर स्थापित होने वाली सरकारें जांच एजेंसियों का किस तरह से उपयोग-दुरुपयोग अपनी सत्ताओं को बनाए रखने अथवा विपक्षी दलों का मनोबल तोडऩे के लिए करती रही हैं किसी से छुपा हुआ नहीं है। पर सोहराबुद्दीन प्रकरण में सीबीआई जांच का संबंध तो एक फर्जी मुठभेड़ में सुप्रीम कोर्ट के आदेश से है। यह किसी भ्रष्टाचार की जांच का प्रकरण नहीं है। अब जबकि अमित शाह की अग्रिम जमानत याचिका सीबीआई की विशेष अदालत द्वारा ठुकरा दी गई है और गुजरात के गृह राज्यमंत्री जांच एजेंसी के समक्ष उपस्थित होने को तैयार नहीं हैं, देखना होगा कि एक फर्जी मुठभेड़ से उपजे आपराधिक मामले को राज्य-केंद्र संघर्ष में तब्दील कर उसके मार्फत राजनीतिक लड़ाई लडऩे की भाजपा की कोशिशें संसद और देश को अंत में कहां ले जाकर खड़ा करती है और जनता उसका किस हद तक साथ देने को तैयार है। और यह भी कि एनडीए के घटक दल भाजपा का उसके नए अवतार में कहां तक साथ देना चाहेंगे। बिहार में नीतीश कुमार के साथ भाजपा की लड़ाई की शुरुआत ही मोदी मुद्दे से हुई थी। नीतीश कुमार अपने आपको गुजरात के मुख्यमंत्री के साथ खड़े हुए नहीं देखना चाहते थे। प्रधानमंत्री के भोज में शामिल न होने का फैसला लेकर भाजपा के चार बड़ों ने शायद यही समझाना चाहा है कि पार्टी के भाग्य और अस्तित्व को गुजरात सरकार के समक्ष उपजे संकट के साथ नत्थी करना उसके लिए आज सबसे बड़ी जरूरत है। सच्चाई तो यह भी है कि सोहराबुद्दीन मुठभेड़ कांड की गांठें खुलने के साथ ही श्री मोदी अगर श्री शाह को एक मंत्री से बदलकर एक सामान्य नागरिक में तब्दील कर देते तो भाजपा का यही शीर्ष नेतृत्व आज किसी दूसरी मुद्रा में खड़ा पाया जाता। सब लोग अच्छे से जानते हैं कि भाजपा के लिए इस समय दांव पर क्या लगा है।