पहाड़ नहीं जाते
यात्राओं पर कहीं
लौटते भी नहीं
कहीं से वे वापस।
करते हैं केवल प्रतीक्षा।
खड़े-खड़े और छोड़े बग़ैर ज़मीन
सालों-साल सदियों तक
लौटने की गड़रियों के घर वापस।
पर जानते हैं पहाड़ –
गया हुआ सब कुछ
वापस नहीं लौटता कभी
जैसे चट्टानों के सीने
चीरकर निकली कोई नदी
या कि ससुराल के लिए
घर छोड़कर रवाना हुई बेटियां
जो लौटती भी हैं कभी अगर
तो सिर्फ आंसू बनकर
आंखों में मां की।
पर जानते हैं यह भी पहाड़ –
खड़े रहना ज़रूरी है उनका
इसी तरह फैलाकर बांहें
क्या पता कब लौट आएं गड़रिए
वापस यात्राओं से।