[dc]मो[/dc]दी सरकार के ‘स्वप्निल’ रेल बजट पर किसी भी तरह की प्रतिक्रिया व्यक्त करने के लिए कुछ समय प्रतीक्षा करनी चाहिए। रेल मंत्री डीवी सदानंद गौड़ा द्वारा पेश किया गया बजट इस मायने में ‘स्वप्निल’ है कि उसमें सरकार ‘रील लाइफ’ को ‘रीयल लाइफ’ में बदलने का साहस दिखाना चाहती है। निश्चित ही ऐसा सपना भी कोई गुजराती उद्यमी ही देख और दिखा सकता है। पूछा जा सकता है कि इस तरह के रेल बजट नीतीश, लालू और ममता बनर्जी कभी क्यों नहीं पेश कर सके! क्या इसका कारण इन पूर्व रेल मंत्रियों का बैकग्राउंड हो सकता है? इसका दूसरा पक्ष यह सवाल है कि रेल मंत्री आम भारतीय नागरिक को तेज गति के जिस रेललोक में ले जाना चाहते हैं, वह वास्तव में उसका है भी कि नहीं? मसलन देशभर में पटरियों पर दौड़ने वाली कोई साढ़े बारह हजार यात्री गाड़ियों के डिब्बों में हर रोज ऑस्ट्रेलिया की समूची आबादी से ज्यादा जो ‘स्वदेशी’ शरीर और आत्माएं भीड़ के धक्कों के साथ अंदर और बाहर होती रहती हैं, उनकी जरूरतें निश्चित ही तेज गति की बुलेट ट्रेनों से अलग हैं। रेल मंत्री गौड़ा अपने बजट भाषण की शुरुआत में कौटिल्य के अर्थशास्त्र को उद्धृत करते हुए कहते जरूर हैं कि : ”जनता की खुशियों में शासक की खुशी निहित होती है। उनका (जनता का) कल्याण उसका (शासक का) कल्याण होता है। जिस बात से शासक को खुशी होती है वह उसे ठीक नहीं समझेगा। परंतु जिस किसी बात से जनता खुश होती है शासक उसे ठीक समझेगा।” पर निश्चित ही समूचे रेल बजट को बुलेट ट्रेन तक सीमित कर खारिज भी नहीं किया जाना चाहिए। रेल प्रस्ताव संकेत हैं कि दो दिन बाद अरुण जेटली द्वारा प्रस्तुत किए जाने वाले आम बजट का, जिसमें वित्त मंत्री बताएंगे कि नरेंद्र मोदी अपने सपनों के भारत को कितनी तेज गति के साथ दुनिया के नक्शे पर उतारना चाहते हैं।
[dc]रे[/dc]ल बजट में दूसरा बड़ा संकेत यह है कि बेहतर, साफ-सुथरी, वाई-फाईदार और तीव्र गति की सुरक्षित सुविधाओं के लिए रेलयात्रियों को भी अब पेट्रोल-डीजल और खाना पकाने की गैस की कीमतों की तरह ही बाजार-आधारित भाड़ों की हकीकत से रूबरू होना ही पड़ेगा। यात्री किराए में 14.2 प्रतिशत और माल भाड़े में 6.5 प्रतिशत वृद्धि का बजट-पूर्व जुलाब उसी दिशा में पहला कदम था। सरकार की मंशा हो सकती है कि सार्वजनिक क्षेत्र के निकायों का ‘डिस्इन्वेस्टमेंट’ हो और प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के मार्फत रेलवे का यथासंभव निजीकरण। यानी कि प्रति पैसेंजर/किमी 23 पैसे के वर्तमान घाटे को कम करके यात्री किराए को एक स्वस्थ अर्थव्यवस्था के लिए जरूरी मानकों के करीब लाया जाए। रेल मंत्री ने कांग्रेस को भी यह जानकारी दी कि तालियां बजवाने के लिए यूपीए के पिछले दस वर्षों के शासनकाल में साठ हजार करोड़ रुपए लागत की 99 नई रेल लाइन परियोजनाओं को मंजूरी दी गई, पर आज तारीख तक मात्र एक ही पूरी हो पाई है। अत: रेल बजट का लब्बो-लुआब यही माना जा सकता है नरेंद्र मोदी को कड़वे फैसले लेते समय न तो तालियां कुटवाने की परवाह रहेगी और न ही इस बात की कि सदानंद गौड़ा के बजट के बाद कोई दूसरा बहादुर विपक्षी सांसद अरुण जेटली की नामपटि्टका को अपने चमकीले जूतों से कुचलते हुए फोटो खिंचवाने का उपक्रम करे। नरेंद्र मोदी ने रेल मंत्री के मुंह से कहलवा दिया है ‘यत्तदग्रे विषमिव, परिणामे अमृतोपमम्’ (दवा खाने में तो कड़वी लगती है लेकिन उसका परिणाम मधुर होता है।) अत: देश को अच्छे दिनों की प्रत्याशा में चाहे कुछ समय के लिए ही सही, खराब दिनों के वास्ते भी तैयार रहना चाहिए।