जब पहुंचें हम ज़मीन पर अपनी

वक्‍़त बदल गया है!
अब काम नहीं चलने वाला
इतना भर कह देने से कि –
पहुंच गए हैं हम शिखरों पर
और बेताब हैं
फहराने को पताकाएं।
कि हमने जीत लिए हैं ठिकाने
दुश्मन की कमज़ोरियों के,
बग़ैर किसी संघर्ष और
बाहर निकाले बिना
तलवारों को म्यान से।
और कि घड़ी आ गई है अब
जश्‍न मनाने की हमारे।
वक्‍़त अब नहीं रहा पहले जैसा!
साबित करने के लिए कि
हम झुठला नहीं रहे हैं ख़ुद को
हमेशा की तरह ही,
ज़रूरी है हमारा दिखते रहना भी
भीड़ को जो जुड़ी हुई है ज़मीन से,
कि हम अपने ही घुटनों को तोड़ते हुए
पहुंचे हैं ऊंचाइयों पर।
और कि अपने ही पैरों पर खड़े
होकर लहराना चाह रहे हैं झंडे हम।
पूछने वाली हैं हवाएं भी
अब हज़ारों सवाल –
उन कठिन रास्तों के बारे में
जिन्हें लांघकर पार की होंगी
दुर्गम चोटियां हमने।
उन राहगीरों के बारे में,
जो टकराए होंगे हमसे,
और रुके होंगे रास्तों में पूछने के लिए
नाम और पते हमारे।
देना होंगे जवाब हमें
इन तमाम सवालों के,
इसके पहले कि करें रुख़ हम
लौटने के लिए वापस
जड़ों की ओर अपनी,
शुरू की थी यात्राएं जहां से हमने।
कोई तो मिलना चाहिए हमें
बांटने के लिए हमारी थकान,
जब पहुंचें हम, ज़मीन पर अपनी!
10 अगस्त, 2013

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