[dc]इ[/dc]स सवाल का जवाब ढूंढ़ने का शायद समय आ पहुंचा है कि एक राष्ट्र के रूप में प्रगति के तमाम दावों के बावजूद आम नागरिक उदास क्यों नजर आता जा रहा है? वह अपनी किस परेशानी को लेकर लगातार चिंतित है? वह अपनी व्यक्तिगत सुरक्षा को लेकर परेशान है या फिर उसे यह डर लग रहा है कि उसकी समूची स्वतंत्रता ही खतरे में है? अखबारों के पन्नों, टीवी चैनलों की बहसों और हमारे मौजूदा राजनैतिक-सामाजिक नेतृत्व की गतिविधियों और कार्यशैली के माध्यम से जो कुछ भी व्यक्त हो रहा है, वह इन मायनों में नागरिक के लिए भयभीत करने वाला बन रहा है कि आगे चलकर कुछ अच्छा होने वाला है, ऐसी उसे ज्यादा आशा नहीं बंधती। बहुत मुमकिन है कि जो चल रहा है, उसे लेकर व्यक्त की जा रही चिंता कृत्रिम और काल्पनिक हो और उसका वास्तविकताओं के साथ दूर तक भी संबंध न हो, पर उसे खारिज कर दिए जाने की भी कोई स्वीकार करने योग्य वैज्ञानिक वजह अभी उपलब्ध कराई जाना शेष है। इस सच्चाई को हम कैसे झुठलाएंगे कि पंद्रह अगस्त की मध्यरात्रि को हमारे सामूहिक नेतृत्व ने जो संकल्प सार्वजनिक रूप से हमें गिनाए थे, वे नागरिक-जीवन का हिस्सा बन ही नहीं पाए और हाशियों पर चले गए? हमें आश्वस्त किया गया था कि सत्ता का विकेंद्रीकरण करके प्रत्येक नागरिक को राष्ट्रीयता से संपन्न किया जाएगा। पर होने यह लगा कि विकेंद्रीकरण के स्थान पर सत्ता के अनगिनत दृश्य-अदृश्य केंद्र बनने लग गए और नागरिक को उनसे लड़ने के लिए निहत्था छोड़ दिया गया। ‘अनेकता में एकता’ के उद्घोष के साथ प्रारंभ की गई महत्वाकांक्षी यात्रा को ‘एकता में अनेकता’ बनाया जाने लगा। अखिल भारतीयता का अवैध रूप से खनन करके क्षेत्रीयता को क्षुद्रता में तब्दील किया जाने लगा। अब हम स्वीकार करने से खौफ खा रहे हैं कि देश के आम नागरिक का विश्वास हासिल करने और उसे साथ लेकर आगे बढ़ने के प्रयासों में कहीं कोई गंभीर चूक हो गई है। हमारा नेतृत्व उस गलती को ठीक भी नहीं करना चाहता। दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है कि अहिंसक उपायों से प्राप्त की गई आजादी को हिंसा की मदद से सुरक्षित रखने के प्रयोग आजमाए जा रहे हैं और इसके प्रति किसी का कोई सशक्त अहिंसक विरोध भी प्रकट नहीं हो रहा है। समाज-जीवन में पुलिस और सेना की बढ़ती हुई भूमिका को आवश्यक संस्थाओं के रूप में स्थापित और विकसित किया जा रहा है और उसे लोकमान्य भी बनाया जा रहा है। शायद आगे चलकर यह भी बहस उठे कि संविधान में उल्लेखित राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों और नागरिकों के मौलिक अधिकारों से संबंधित अनुच्छेदों में परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तन किए जाने या उनके भाष्य नए सिरे से जनता को समझाए जाने की जरूरत बन गई है। विकास का जो रास्ता देश को समझाया जा रहा है, उसमें कई तरह के संदेहों के लिए गुंजाइशें बनाई जा रही हैं।
[dc]स्व[/dc]तंत्रता प्राप्ति के बाद के कोई चार दशकों के दौरान कुछ संक्षिप्त अपवादों को अगर हम छोड़ दें तो एक ऐसी व्यवस्था देश में कायम रही, जिसमें एक पक्ष और एक विपक्ष की उपस्थिति स्पष्ट रूप से नजर आती रही। दोनों के बीच में जनता का स्थान सुरक्षित भी बना रहा। ‘पक्ष’ जब-जब भी जनता का विश्वास खो देता, जनता उसे सत्ता से हटा देती या इस आशय का खौफ पैदा कर देती थी। जनता की सर्वोच्चता के प्रति ‘पक्ष’ और ‘विपक्ष’ दोनों का विश्वास और सम्मान कायम रहा। पर वर्तमान में हालात कुछ इस तरह के बन रहे हैं कि जनता के प्रति ‘पक्ष’ का ही विश्वास खत्म होता नजर आ रहा है और वह जनता को भी एक ‘विपक्ष’ मान रहा है। दूसरी ओर जनता यह पता करने के लिए परेशान है कि ‘पक्ष’ के विकल्प के तौर पर ‘विपक्ष’ के रूप में किसे मान्यता दी जाए? नागरिकों के लिए अब ‘पक्ष’ और ‘विपक्ष’ के बीच फर्क कर पाना कठिन होता जा रहा है। आम आदमी की बढ़ती हुई उदासी का असली कारण भी शायद यही हो सकता है कि उसकी सुरक्षा के लिए जिन भी संस्थाओं का पिछले छह से अधिक दशकों में निर्माण किया गया और उन पर भरोसा जताया गया, वे इस समय अपने स्वयं के ही अस्तित्व और विश्वसनीयता को कायम रखने को लेकर चिंतित और संघर्षरत हैं। इसका एक प्रमाण यह भी है कि एक विशाल राष्ट्र के रूप में सामूहिक उपलब्धियों पर गर्व करने के अवसर लगातार कम हो रहे हैं और जिन्हें फैसले लेने के अधिकार प्राप्त हैं, उन्हें अपने नागरिकों की व्यक्तिगत उपलब्धियों को राष्ट्रीय गर्व के रूप में गिनाने के प्रयास करना पड़ रहे हैं। भारतीय नागरिक दुनियाभर में अपनी उपलब्धियों की पताकाएं फहरा रहे हैं और देश के भीतर की सामूहिक भारतीयता सांप्रदायिकता, जातिवाद और धार्मिक उन्माद के कारण लहू-लुहान हो रही है। पर आखिर कहीं तो कोई ताबीज होगा, जो हमें अपने वर्तमान के संकट से आजादी उपलब्ध करवाएगा! पर उस ताबीज की खोज भी सामूहिक प्रयासों से ही की जा सकेगी। हम उसके लिए आज के दिन संकल्प ले सकते हैं।