राजीव गांधी राजनीति में पैर भी नहीं रखना चाहते थे। वे एक नितांत ही प्रायवेट और अगल किस्म के इंसान थे। उनका संपूर्ण व्यक्तित्व अद्भुत और आकर्षक था। पर भाई संजय गांधी की असामयिक मौत के कारण श्रीमती इंदिरा गांधी जब अकेली पड़ गईं तो राजीव ने न सिर्फ राजनीति में प्रवेश किया उसके साथ ईमानदारी भी बरती। राजीव गांधी अगर आज जिंदा होते तो देश की राजनीति काफी अलग और साफ-सुथरी होती। पर ऐसा नहीं हो पाया। प्रियंका गांधी के इस सवाल का नलिनी जवाब नहीं दे पाई कि उनके पिता जैसे एक अच्छे इंसान की जान लेने के पीछे आखिर मकसद क्या हो सकता था। राजीव गांधी के बेटे राहुल गांधी राजनीति में अपनी जगह बनाने की न सिर्फ इच्छा रखते हैं उसके लिए ईमानदारी के साथ कोशिशें भी कर रहे हैं। जिस तरह से राजीव गांधी मध्यप्रदेश के झाबुआ जिले के देवगढ़ गांव में कड़ी धूप के बीच आदिवासियों के झोपड़ों में भारत की आत्मा की तलाश करते थे ठीक उसी तरह राहुल कभी उड़ीसा में तो कभी छत्तीसगढ़ के बस्तर में उन आदिवासी चेहरों को तलाश कर रहे हैं जिनकी तस्वीरें उन्होंने अपने पिता की आंखों में तैरती हुई देखी होंगी।
राहुल का गांव-गांव घूमना कांग्रेस के अनुभवी नेताओं की स्थापित छवि से मेल नहीं खाता। इंदिराजी की हत्या के बाद हुए चुनावों के बाद प्रधानमंत्री पद संभालने और सत्ता से बाहर होने के बाद अपनी हत्या के पूर्व तक जिस कांग्रेस का उन्होंने नेतृत्व किया उस दौरान जिस एक मोर्चे पर उनका संघर्ष बराबर बना रहा वह था पार्टी को चापलूसी से मुक्ति दिलाने का। राजीव गांधी अपने प्रयास में सफल नहीं हो पाए। राजीव गांधी की हत्या के बाद के सत्रह वर्षो के दौरान सारी दुनिया बदल गई, देश की राजनीति बदल गई, कांग्रेस का कई राज्यों से सफाया हो गया पर जो एक चीज नहीं बदली वह है चापलूसों का साम्राज्य। डॉ. मनमोहन सिंह की शराफत की दाद दी जानी चाहिए कि वे प्रधानमंत्री पद पर बने रहते हुए अपने ही दल के वरिष्ठ नेताओं के मुंह से इस तरह के स्तुति गान सुन रहे हैं कि अगले प्रधानमंत्री राहुल गांधी होंगे। राहुल गांधी ने बस्तर दौरे के दौरान अपनी इस पीड़ा को व्यक्त भी किया कि ‘युवराज’ का संबोधन उन्हें अपमानजनक लगता है।
राहुल जानते हैं कि राजा, महाराजा और युवराज बनकर पार्टी चलाने की कोशिशें ही देश की राजनीति को मायावती जैसे नेताओं की झोली में डालेंगी। जिन लोगों ने राजीव गांधी को जमीनी राजनीति नहीं करने दी वे ही तत्व अब राहुल गांधी को भी ऐसा करने से रोकना चाहते हैं। ये लोग राहुल को बिना युद्ध लड़े ही महावीर चक्र प्रदान करना चाहते हैं। इस बात पर जरा गौर किया जाए कि डॉ. मनमोहन सिंह के नेतृत्व में यू.पी.ए. सरकार को अब पांच साल होने जा रहे हैं। वर्ष 2004 में हुए चुनावों में न सिर्फ राहुल गांधी ही बल्कि उनके साथ युवा सांसदों की एक बड़ी टोली लोकसभा के लिए चुनी गई थी। ये युवा सांसद जब चुनकर आए थे तब मीडिया में बड़ी-बड़ी कहानियां छपी थीं कि कांग्रेस का अब चेहरा बदलने वाला है। युवा नेतृत्व को बड़ी जिम्मेदारियां मिलेंगी। नई कांग्रेस का जन्म होगा।
हाल ही में हुए मंत्रिमंडल फेरबदल में कुछ युवा सांसदों को जिम्मेदारियां अवश्य सौंपी गई हैं। पर उससे यह आरोप अप्रांसगिक नहीं हो जाता कि राजनीतिक दलों का मंजा-मंजाया घाघ नेतृत्व जिम्मेदारियों के नाम पर युवाओं को केवल जंगल से सूखी लकड़ियां बीनकर लाने का काम ही सौंपता आया है। बृूढ़ा नेतृत्व बैंड बजाना बंद नहीं करता और युवाओं से केवल चुनावी घोड़ों के आगे केवल रॉक एंड रोल करवाया जाता है। राहुल गांधी कोशिश में हैं कि वे लड़ाई जीतकर ही मैडल प्राप्त करें। संघर्ष करके ही पदों तक पहुंचें। इसके लिए जेल भी जाने की उनकी तैयारी है। पर इसके लिए उन्हें पार्टी में जिस स्पेस की जरूरत है वह शायद आसानी से उपलब्ध न हो इस हकीकत के बावजूद कि सोनिया गांधी काफी शक्तिशाली पार्टी अध्यक्ष हैं। अपने-अपने वर्चस्व के लिए संघर्षरत दूसरी पार्टियों के राहुल गांधी भी शायद इसी तरह की परेशानियों से जूझ रहे होंगे।