५ मार्च २०११
अर्जुन सिंह अगर अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) से स्वस्थ होकर बाहर आ जाते और पार्टी की अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी द्वारा पुनर्गठित की गई सर्वोच्च नीति निर्धारक इकाई कार्यसमिति में उनके लिए तय किए गए नए स्थान के बारे में उनसे प्रतिक्रिया मांगी जाती तो उनका शायद यही जवाब होता कि वे कांग्रेस और नेहरू-गांधी परिवार के एक वफादार सिपाही रहे हैं और उन्हें जो भी जिम्मेदारी सौंपी गई है उसका उन्होंने हमेशा ही पूरी ईमानदारी के साथ निर्वाह किया है। पर सही बात तो यह है कि यह सवाल भी हायपोथेटिकल है और बदली हुई परिस्थितियों में उनके द्वारा दिए जा सकने वाले जवाब को भी कल्पना की उड़ान करार देते हुए निरस्त किया जा सकता है। हकीकत यह है कि वर्ष 1960 में कांग्रेस का एक सक्रिय सदस्य बनने के बाद के पांच दशकों में जिस तरह की राजनीति अर्जुन सिंह ने पार्टी में देखी और उनके स्वयं के द्वारा की गई, उसके ढेर सारे रहस्य और कही-अनकही कथाएं वे बगैर अपनी उपस्थिति में उजागर किए हुए विदा हो गए हैं। सबकुछ अचानक ही हो गया। यह अर्जुन सिंह की राजनीतिक प्रतिभा का ही कमाल था कि वे सत्ता से बाहर रहते हुए भी हमेशा चर्चा में बने रहते थे और व्हील चेयर पर बैठे होते हुए भी उनकी उपस्थिति का मौन आतंक पार्टी के उन चेहरों पर स्पष्ट पढ़ा जा सकता था जो उनसे नजरें चुराते हुए सत्ता के शिखरों को छूने की कोशिशों में लगे रहते थे। ज्यादा आश्चर्य नहीं व्यक्त किया जाना चाहिए अगर अर्जुन सिंह जैसे कद्दावर नेता की परिदृश्य से अनुपस्थिति से उपजे शोक को उनकी पार्टी में बिना ज्यादा आवाज पैदा किए मौन श्रद्धांजलि के जरिए ही निपटा दिया जाए और आगे की बहस इस सवाल पर केंद्रित हो जाए कि कार्यसमिति में कोई पद रिक्त हुआ है भी कि नहीं। इस विश्लेषण को बहस के लिए खुला छोड़ा जा सकता है कि अर्जुन ङ्क्षसह और कांग्रेस में शीर्ष नेतृत्व के बीच रिश्ते कुछ इस तरह के हो चले थे कि उन्हें लेकर पार्टी में डर और शंका का माहौल बना रहता था। इसका मुख्य कारण शायद अर्जुन सिंह का वह स्वभाव था जो बहुत ही ठंडी पर कंपकंपा देने वाली आवाज में उन्हें ऐसे हरेक फैसले को चुनौती देने के लिए उत्तेजित करता था जिसे वे अपनी और पार्टी की वैचारिक प्रतिबद्धताओं के खिलाफ मानते थे। कांग्रेस पार्टी या दूसरी तमाम पार्टियों का भी चरित्र हो गया है, अधिकांश नेता नेतृत्व की गलती पकडक़र उसे चुनौती देने का जोखिम मोल लेने के बजाए आंखें चुराते हुए अपने आपको करीने से कालीन बिछाने या उसके कोनों को ठीक करने के काम में व्यस्त कर लेते हैं। अर्जुन सिंह के बारे में कहा जाता रहा है कि चूंकि उन्होंने राजनीति के प्रारंभिक पाठ मध्यप्रदेश में पंडित द्वारिकाप्रसाद मिश्र के सान्निध्य में प्राप्त किए थे इसलिए उनमें वे तमाम विशेषताएं और योग्यताएं थीं जो चाणक्य में पाई जाती थीं। पर अर्जुन सिंह निश्चित ही कोई चाणक्य नहीं थे। क्योंकि चाणक्य ने नंद वंश का नाश करने के लिए एक चंद्रगुप्त मौर्य की खोज कर उसे तराशा था, पाटलीपुत्र की राजधानी पर स्वयं राज करने की आकांक्षा अपने अंदर कभी भी नहीं उत्पन्न होने दी। जबकि अर्जुन सिंह के बारे में यही स्थापित रहा कि वे स्वयं राज करना चाहते थे और इसके लिए वे अपने आपको हर तरह से योग्य व सक्षम मानते भी थे। ऐसा उन्होंने मध्यप्रदेश में करके दिखाया भी था। दिल्ली में भी वे शायद ऐसा ही करना चाहते थे। सच्चाई हो सकती है कि उनकी पार्टी के नेता अर्जुन सिंह के अंदर छुपे चाणक्य से नहीं चंद्रगुप्त से खौफ खाते थे। अर्जुन सिंह अगर चाणक्य होते तो वे कांग्रेस में अपने पचास वर्षों के राजनीतिक जीवन में कई चंद्रगुप्त तैयार कर सकते थे पर ऐसा नहीं हुआ। उनका कोई राजनीतिक उत्तराधिकारी नहीं बन पाया। मध्यप्रदेश में भी एक ताकतवर
मुख्यमंत्री के तौर पर उन्होंने न तो अपनी ही पार्टी में और न ही विपक्ष में कोई उत्तराधिकारी खड़ा होने दिया। इसे उनका राजनीतिक कौशल भी करार दिया जा सकता है। अर्जुन सिंह को लेकर एक पूरा शोध प्रबंध इस विषय पर भी लिखा जा सकता है कि प्रतिबद्ध नौकरशाही का जो सफलतम प्रयोग उन्होंने मध्यप्रदेश में किया वह न सिर्फ अद्वितीय था उनके बाद सत्ता संभालने वाले मुख्यमंत्री भी उस व्यवस्था के मुरीद हो गए। उन्होंने न सिर्फ उसे जारी रखा, और भी परिपक्वता प्रदान की। अर्जुन सिंह एक ऐसे सफल राजनेता थे जो ‘योग्य पर वफादार अफसरों’ की मदद से सरकार चलाते थे। मंत्रिमंडल के उनके राजनीतिक सहयोगियों पर ये अफसर भारी पड़ते थे। कहा जाता रहा है कि कांग्रेस पार्टी में अधिकांश सहयोगियों और शिष्यों ने चाहे धीरे-धीरे करके उनका साथ छोड़ दिया हो और निष्ठाएं बदल ली हों, उनके साथ जिन भी अधिकारियों ने काम किया वे दिन के उजाले में भी अंत तक उनके करीब बने रहे। अर्जुन सिंह के पास कहने के लिए काफी कुछ था। वे शायद कहना भी चाहते थे। कई बार आभास भी होता था कि वे कुछ कहते-कहते रुक गए हैं। गैस त्रासदी के बाद वारेन एंडरसन के देश से सुरक्षित निकल जाने के सवाल पर उनके केवल एक शब्द से बवाल मच गया था कि उनकी जवाबदेही नहीं बनती। और फिर समूचा सत्ता प्रतिष्ठान राज्यसभा में उनके द्वारा दिए जाने वाले उस वक्तव्य की सांस रोककर प्रतीक्षा कर रहा था जो कि राजनीतिक रूप से विस्फोटक साबित हो सकता था। अर्जुन सिंह ने हमेशा की तरह स्थिति को संभाल लिया। पर अर्जुन सिंह की उस आत्मकथा का बाहर आना अभी शेष है जिसके बारे में कहा जाता है कि वे अपने अंतिम दिनों में लिखने में व्यस्त थे। अगर ऐसी कोई आत्मकथा है और वह अंतत: प्रकाशित हो पाती है तो चुरहट लॉटरी कांड से उठे विवादों के चलते मुख्यमंत्री पद से उन्हें उनकी मर्जी के विरुद्ध प्रधानमंत्री राजीव गांधी द्वारा हटाए जाने के घटनाक्रम से लगाकर गैस त्रासदी और बाबरी ढांचे को गिराए जाने की घटना से जुड़े रहस्यों से तो परदा उठा सकती है, यह भी अंतिम रूप से स्थापित कर सकती है कि वे वास्तव में देश के शीर्षस्थ पदों को सुशोभित करने की योग्यता रखते थे पर ऐसा नहीं होने दिया गया। पर अर्जुन सिंह को लेकर लिखी जाने वाली कोई भी किताब इस रहस्य से कभी परदा नहीं उठा पाएगी कि उनकी पूर्ण निष्ठा और समर्पण के बावजूद उन्हें पूरी तरह से भरोसा किए जाने योग्य नेहरू-गांधी परिवार का वफादार सिपाही क्यों नहीं समझा गया।